सोमवार, सितंबर 30, 2013

श्रीलंका - बौद्ध धर्म का बदलता स्वरूप

बौद्ध धर्म का मूलतत्व है अहिंसा। ध्यानमग्न भगवान बुद्ध के मुखारविन्द पर फैली शान्ति किसी उग्र प्राणी को भी शान्त कर दे। वैसे भारतीय उपमहाद्वीप पर जन्मे सभी पुरातन महान धर्मों (सनातन धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म) में अहिंसा को उच्चतम स्थान दिया गया है। वर्तमान युग में इस्लाम, क्रिस्तानी, सिख और हिन्दू धर्म के उग्र अनुयायियों के बारे में तो मैं पढ़ भी चुका हूँ और देख भी, मगर बौद्ध धर्म के बारे में मेरे कुछ अलग विचार थे जो अब कुछ हद तक मलिन हो चुके हैं। उम्मीद है कि जैनियों के बारे में कभी ऐसा न लिखना पड़े।

दक्षिण एशिया के दो देश, श्रीलंका और बर्मा जो सदियों से बौद्ध धर्म की आडम्बर-शून्य विरासत को ढो रहे हैं, आज 'बौद्ध आतंक' के लिए ज्यादा मशहूर हैं। बर्मा की पश्चिमी सरहद, जो बांग्लादेश से जुडी है, पर मुजाहिदीनों का संघर्ष काफी पुराना है। इस वजह से आज रोहिंग्या मुस्लिम बर्मा की मिलिटरी जन्टा के हाथों प्रताड़ित हो रहे हैं। इनमें से कई तो बांग्लादेश में पनाह ले रहे हैं और कई हिंदुस्तान भी आ पहुंचे हैं - और हम तो हैं ही प्रताड़ितों के चिन्ताहारक। अशिन वराथु, जो शक्ल से तो बहुत ही मासूम हिरन के शावक की तरह लगते हैं आज दुनिया के सामने 'बौद्ध आतंक' के प्रतीक बने हुए हैं। अमेरिका की टाइम मैगज़ीन के कवर पर वे शोभा दे चुके हैं। (कथित रूप से) इनके नेतृत्व में भीड़ों ने कई मुस्लिमों पर हमला किया है और उनकी संपत्ति को नष्ट किया है।



हद तो तब हो गयी जब दलाई लामा को बर्मा के बौद्ध जनता से शांति की गुहार करनी पड़ी!

बर्मा के मुकाबले, श्रीलंका के सिन्हलों को मुस्लिमों से कोई सीधा खतरा नहीं है मगर फिर भी धार्मिक असहनशीलता का एक भाव है। पहले श्रीलंका के तमिल हाथ चढ़े थे, जो लिट्टे के ख़त्म होने के बाद अब उतने शक्तिशाली न रहे, तो अब मुरों (मुस्लिमों) की बारी है। बोदू बल सेना (बी बी एस), एक सिंहल राष्ट्रवादी संघठन है जिसने बुरका, हलाल मीट और खाड़ी के देशों द्वारा प्रायोजित मस्जिद निर्माण के खिलाफ बेड़ा उठाया हुआ है। इस संघठन के संस्थापक भी बौद्ध भिक्षु हैं। आश्चर्य इस बात का नहीं है कि बी बी एस अपने संकीर्ण उद्देश्य में सफल हो पाया है, मगर इस बात का है कि यह सब शांति के प्रतीक बौद्ध धर्म की नाक के नीचे और भिक्षुकों के ही सक्रिय संरक्षण की वजह से हो रहा है।

मुस्लिमों के धार्मिक विचारों और धारणाओं पर हुए इन हमलों का असर हाल ही में बौध गया में महाबोधि मंदिर में हुए विस्फोटों के रूप में दिखाई दिया। कुछ उपद्रवी मूर्खों ने, जो बिहार से थे, अमर जवान ज्योति पर हमला कर उसका अनादर किया। पता नहीं क्यों जब भी दुनिया भर के मुस्लिमों पर कुछ भी हमला होता है तो अपने देश में उसका प्रतिफल दिखाई देता है? ऐसे काम करने वाले मूर्ख बची खुची सहानुभूति भी खो देते हैं। इन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए।

चलते चलते
वैसे श्रीलंका में आमतौर पर चीज़ें काफी सस्ती हैं, मगर समाचारपत्र काफी महंगे हैं। श्रीलंका मिरर के रविवार संस्करण का मूल्य ६० श्रीलंकन रूपये (लगभग ३० भारतीय रूपये) है! इसलिए एक बार जब मैंने मिरर ख़रीदा तो पहले से आखिरी पन्ने तक पूरा पढ़ डाला। डाम्बूला से लेकर कैंडी की चार घंटे की लम्बी यात्रा आराम से कटी।

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श्रीलंका - एक भूमिका
सफाई पसंद श्रीलंका
श्रीलंका के धर्म सम्प्रदाय
श्रीलंका में बौद्ध धर्म - एक इतिहास


चित्र साभार - टाइम मैगज़ीन

रविवार, सितंबर 22, 2013

अर्थ और अनर्थ

मेरी माँ कहा करती थी चिंता और चिता में सिर्फ एक बिंदु का ही फर्क है। मतलब ये कि अर्थ का अनर्थ होने में ज्यादा देर नहीं लगती अगर सही शब्दों का इस्तेमाल न किया जाये तो। अमरीकन लेखक मार्क ट्वेन ने भी कहा है - " स्वास्थ्य सम्बन्धी पुस्तकें पढ़ते समय सावधानी बरतें , एक गलत छपाई से आप मर सकते हैं "। वैसे अंग्रेजी फिल्म "Into The Wild" में फिल्म का नायक अकेले अलास्का के जंगल में रहते हुए एक जहरीले पौधे को सुरक्षित समझ खा लेता है और मर जाता है। और भी कई उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं। 

खैर, और ज्यादा चूं चपड़ किये बिना मुद्दे पर आते हैं। यूंकी इस चिट्ठे पर कई गैर हिंदी भाषी भी आते हैं इसलिए उनकी सुविधा के लिए मैं चिट्ठे पर गूगल का अनुवादक लगा रहा था। लगाने के बाद जाँच पड़ताल के लिए मैंने एक टेस्ट किया - चिट्ठे का अंग्रेजी में अनुवाद कर, परिणाम देखिये -


पोस्ट का जो अनुवाद हुआ वो छोड़िये, चिप्पियों का तो सत्यानाश कर दिया गूगल ने। "यूँ ही" नामक निश्छल चिप्पी का बड़ा ही बेहूदा अनुवाद किया है "Fuckin"! वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओँ में भी ऐसा ही भद्दा अनुवाद किया है। क्या सोचती होगी विश्व की जनता - हम हिंदुस्तानी कैसे गंदे विषयों पर लिखते हैं। 

छि ! आज समझ आया कि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देश अपने नागरिकों को क्यों हमारे देश में यात्रा करने के विरुद्ध सलाह देते हैं। सब गूगल का ही दोष है! सोच रहा हूँ देशवासियों की तरफ से मानहानि का दावा ठोक दूं। 

वैसे अगर आपकी सतयुगी आत्मा को इसका अर्थ ज्ञात न हो तो यहाँ क्लिक करें। 

शनिवार, सितंबर 21, 2013

श्रीलंका में बौद्ध धर्म - एक इतिहास

श्रीलंका में बौद्ध धर्म करीब २४००  साल पहले सम्राट अशोक द्वारा लाया गया था। सम्राट अशोक ने अपने बेटे महिंदा को बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए श्रीलंका भेजा था। जिस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर भगवान बुद्ध ने निर्वाण की प्राप्ति की थी उसकी एक शाखा भी उस समय श्रीलंका लायी गयी थी। आज वह वृक्ष, जिसे बोधि वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है, बौद्ध धर्म के अनुयायिओं के लिए एक तीर्थस्थान है।

अनुराधापुर का बोधि वृक्ष 

श्रीलंका में बौद्ध धर्म का इतिहास अविच्छिन्न रहा है। भारत, जहाँ बौद्ध धर्म का उद्गम हुआ और जहाँ वह विशाल मौर्य साम्राज्य का राज्य धर्म था, अपनी पकड़ बनाये न रह पाया। एक शैव राजा ने बोधि पेड़ कटवा दिया। नालंदा विश्वविद्यालय, जो अपने समय में विश्व के सबसे बड़े ज्ञानकेंद्र में से एक था, मुस्लिम आतताइयों द्वारा हमले में नष्ट किये जाने के बाद तीन महीनों तक जलता रहा। बौद्ध स्तूप और विहार तोड़ दिए गए। एक बार जब राजनैतिक समर्थन चला गया तो फिर बौद्ध धर्म के लिए राह कठिन थी।

बौद्ध धर्म वैदिक संस्कृति और धर्मकार्यों में होने वाली हिंसा, यज्ञों और कर्मकाण्डो के प्रपंचों और जाति भेदभाव के विरोध में जन्मा था। मगर अहिंसा परमो धर्मः का घोष जो बौद्ध धर्म से प्रारंभ हुआ था उसे हिन्दू मतों ने आत्मसात कर लिया। बौद्ध संघ और तंत्रवाद जैसे बौद्ध धर्म के कई अन्य जड़सूत्र, शैव और वैष्णव मतों ने अपनाये। कुछ समय बाद बौद्ध धर्म अपनी पहचान खो चुका था। रही सही कसर शंकराचार्य ने पूरी कर दी। सनातन धर्म का पुनर्जागरण अब पूर्ण हो चुका था और जल्द ही भगवान बुद्ध विष्णु के एक अवतार मात्र रहा गए।  जैसे असंख्य छोटे छोटे नदी नाले और स्रोत गंगा में मिल अपनी व्यक्तिक पहचान खो देते हैं वही हाल बौद्ध धर्म का हुआ। वैसे मजेदार बात यह है कि श्रीलंका में विष्णु बौद्ध मंदिरों के चार संरक्षकों में से एक माने जाते हैं!

राजकुमारी हेममाली अपने जूड़े में बुद्ध का दन्त छुपाकर ले जाते हुए 

श्रीलंका में भी बौद्ध सिंहल राजाओं को दक्षिण भारतीय शैव हिन्दू साम्राज्यों के हमले का सामना करना पड़ा था। इनमें सबसे ज्यादा, थंजावुर के भव्य और विशाल मंदिरों के निर्माता, राजाराज चोल १ और उसके पुत्र राजेंद्र चोल १ का हाथ था जिन्होंने सिंहलों पर हमला कर उनकी राजधानी अनुराधापुर को ध्वस्त कर दिया और पोलोनारुवा में नयी राजधानी स्थापित की। आज ये दोनों ही यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर साईट घोषित हैं।

चोल अपने साथ शैव धर्म भी श्रीलंका में लाये और कुछ समय के लिए बौद्ध धर्मी राजाओं ने दक्षिण श्रीलंका के घने जंगलों में पनाह ली। श्रीलंका का राजनैतिक इतिहास काफी उथल पुथल भरा रहा है। श्रीलंका की राजगद्दी पर चोल, पांड्य, सिंहल, कलिंग, ब्रितानी, डच, पुर्तगाली इत्यादि ने अधिकार जताया है। श्रीलंका की राजधानी एक शहर से दूसरे और दूसरे से तीसरे शहर में विस्थापित हुई। मगर बौद्ध धर्म ने पकड़ बनायी रखी। विक्रमबाहू १ और पराक्रमबाहू ने बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया और बर्मा के बौद्ध साम्राज्य की मदद से बौद्ध मठों की स्थापना की।

पेराहारा के दर्शन के लिए बैठे लोग 

कैंडी के पवित्र दन्त मंदिर के बाहर एकत्रित भीड़ 

ऐसा माना जाता है कि बुद्ध के दंत को हासिल करने वाला ही श्रीलंका पर शासन का अधिकारी होगा। भगवान बुद्ध का दन्त उनके अंतिम संस्कार के अवशेषों में से बचा कर रख लिया गया था। वैसे यह एक लम्बी कहानी है और फिर कभी सुनाई जाएगी। आज यह दन्त ड़ाम्बुला के पवित्र दन्त मंदिर में रखा गया है और झाँकी के दौरान शहर में घुमाया जाता है। श्रीलंका में एसारा पेराहारा (दन्त का त्योहार) आज भी जुलाई /अगस्त के माह में काफी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन काफी भारी संख्या में लोग उस दन्त के दर्शन करने के लिए यहाँ आते हैं। काफी रंग बिरंगा अवसर है यह, जिसमे हाथियों को सजाकर शहर में घुमाया जाता है, कुछ -कुछ केरल के त्रिचूर पूरम की तरह। संयोग से मैं उस दिन कैंडी में ही था। मगर भीड़, आग उगल कर नाच करने वाले और रंग बिरंगे हाथी मैंने भारत में बहुत देखे हैं इसलिए मैं यह सब छोड़ कोलम्बो चला गया।

वैसे मेरा मूल विचार श्रीलंका में बौद्ध धर्मं के बदलते हुए रूप के बारे में लिखने का था मगर लगता है कि मैं थोडा इधर उधर भटक गया हूँ। वैसे यह भी जरुरी था। अब वह अगली कड़ी का विषय होगा।

चलते चलते 
पवित्र दन्त मंदिर के निकट एक पिज़्ज़ा हट का रेस्तरां है जो पेराहारा की वजह से बंद था। उस दिन रेस्तरां को एक दर्शक दीर्घा में परिवर्तित कर दिया गया था जहाँ आप सीट खरीद कर जुलूस के मजे ले सकते हैं। वहां एक जनाब मुझे एक टिकट ४००० श्रीलंका रुपयों में बेचने की कोशिश कर रहे थे। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं कोलम्बो जा रहा हूँ तो वे २००० रुपयों में तैयार हो गए। मैं काफी प्रयासों के बाद ही उनको इस बात का विश्वास दिला पाया कि मैं सही में शहर छोड़ कर जा रहा था। और फिर अपने चेहरे पर १००० वाट की मुस्कान लाकर वह बोला - "आप जरुर पंजाब से होंगे " !

पिज़्ज़ा हट में दर्शक दीर्घा 

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श्रीलंका - एक भूमिका  
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शुक्रवार, सितंबर 20, 2013

हज - किश्त ३

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हज - क़िस्त १ 
हज - क़िस्त २ 

उस दिन तड़के ही फ़ारुख़ की नींद खुल गयी थी। आम तौर पर रुखसाना सुबह फ़ारुख़ से पहले उठ कर घर के कामों में लग जाती थीं मगर आज तो नजारा ही बदला था। रुखसाना सुबह आँख मलते हुए उठी तो सामने देखा कि फ़ारुख़ नहा धो और तैयार हो सामने बरामदे में चक्कर लगा रहे थे। रुखसाना झटके से उठीं और मुँह पर पानी के छींटे मार घर के काम निबटाने लगीं।

उधर फ़ारुख़ की रगों में तो जोश की लहरें रवां हो रही थीं। न जाने किस अनजान रूहानी ताक़त ने उनके ज़िस्म में नयी जान डाल दी थी। इतने सालों से सजाया सपना आज पूरा जो होने वाला था। तकस्सुल जिस्म एक साथ इतनी सारी जज़बाती लगन देख, उसे संभाल नहीं पा रहा था इसलिए चक्कर लगा उस सरगर्मी को नफ़ी करने की कोशिश कर रहा था।

नाश्ता करने के बाद फ़ारुख़  ने मंजूर को आवाज दी - जाओ बेटा जरा एक ऑटोरिक्शा ले आओ। फिर फ़ारुख़, रुखसाना, शाहरुख़, सलीम, अफ़साना और मंजूर को साथ लिए रिक्शे पर चल दिए। रुपयों की थैली एक बैग में बंद थी। रिक्शे पर बैठे हुए, फ़ारुख़ की आँखों के सामने उनकी पूरी जिंदगी की दास्ताँ गुज़र रही थी। अपना बचपन, खेल, वरज़िशी, खिलन्दड़ी, लड़कपना, निकाह, बच्चे, कारखाना, कारीगर, मशीन, कपड़े, तंगी, झगड़े ,फब्ती सब गुजर रहे थे।

अचानक रिक्शा रुक गया और साथ ही में फ़ारुख़ के ख्यालों की गाड़ी भी। आगे देखा रास्ते में काफी भीड़ जमा थी। रिक्शे का पार हो पाना नामुमकिन था। फ़ारुख़ रुपयों का बैग हाथों कस कर पकड़े रिक्शे से उतरे और सलीम से बोले - जरा देखो क्या बात है। सलीम ने वापस आकर बताया - अब्बा अपने कारखाने में काम करने वाले मदन के साथ एक हादसा हो गया है। आज सुबह दुकान की तरफ जा रहे था कि किसी लॉरी ने टक्कर मार दी। वहां उसकी बीवी और बच्चे रो पीट रहे हैं इसीलिए मज़मा लगा हुआ है।


फ़ारुख़ आगे बढ़े और भीड़ को चीरते हुए अन्दर पहुँचे तो देखा कि दिल दहला देने वाला नज़ारा था। मदन लहूलुहान रास्ते पर पड़ा था। उसके सर पर गहरी चोट लगी थी। उसकी बीवी उसका सर अपनी गोद में रख उसे हिला - हिलाकर उससे बात करने के कोशिश कर रही थी। फ़ारुख़ ने तुरंत उसे ऑटोरिक्शा में बैठवाया और अस्पताल ले गए। और भी कई लोग साथ आये।

अस्पताल में मुआयना करने के बाद डॉक्टर ने कहा कि खून बहने की वजह से इनका काफी नुक्सान हो चुका है  सो इन्हें तुरंत ही ऑपरेशन के लिए ले जाना होगा। ऑपरेशन की फीस डेढ़ लाख रुपये, वहाँ रिसेप्शन पर जल्द से जल्द जमा कर दें। पैसे का नाम सुनते ही भीड़ में से कई तो यूँ ही रफूचक्कर हो गए। फारुख ने मदन की बीवी को तलब किया तो उसने बताया कि ग़रीबी की हालत में वो इतने रुपयों का इंतज़ाम नहीं कर पायेगी। उधर नर्स ने आकर कहा कि जल्द पैसे जमा करवाएँ नहीं तो मरीज़ की हालत और भी ख़राब हो सकती है।

फ़ारुख़ ने अपने घर वालों से सलाह ली। वे काफी दिमागी कशमकश में थे। फिर उन्होंने रुखसाना की तरफ एक नज़र डाली और उन्हें ज़वाब मिल गया। उन्होंने रुपयों का बैग मदन की बीवी के हाथ में थमाया और कहा कि इलाज़ में इनका इस्तेमाल करे।

अस्पताल से बाहर निकलते हुए रुखसाना से बोले - अल्लाह की मर्जी होगी तो फिर किसी और साल हज़ कर लेंगे। घर की तरफ रुख करते हुए आज फ़ारुख के दिल में अजीब सा सुकून था।

(समाप्त)

गुरुवार, सितंबर 19, 2013

हज - क़िस्त २

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हज - क़िस्त १

काफी समय से फ़ारुख़ के ज़हन में एक ख्याल जड़ कर रहा था। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि मरने से पहले एक बार जरूर हज कर लें। अपनी बीवी से अक्सर कहा करते थे, " रुखसाना, इस जहाँ की तो कर ली अब उस जहाँ की देखी जाये!"। रुखसाना घर के हालत से तो वाकिफ़ थी मगर अपने शौहर की हाँ में हाँ मिला गहरी साँस भर लेती थी।

गुरब़त में जिंदगी गुज़ार अब फ़ारुख़ अपने ख्व़ाब को पूरा करने के करीब थे। तिल तिल कर उन्होंने इतने सालों से कुछ पैसे जमा किये थे और जो मंसूबे बनाये थे उन्हें अमली जामा पहनाना का वक़्त नज़दीक आ रहा था।

अब शब भर वे आँखे खोल कर छत को ताड़ते थे। कभी नींद टूटती तो खुद तो पाक काब़ा के चक्कर काटते हुए पाते। हर समय यही सोचते रहते कि कब वहाँ जाना नसीब होगा और वहां जाकर वे क्या करेंगे। रुखसाना से जिक्र करते तो वह झड़प कर कहती - जितनी लम्बी चादर हो उतने ही पैर फ़ैलाने चाहिए। फ़ारुख़ अन्दर ही अन्दर मुस्कुराते और पलट कर सो जाते।


फिर एक दिन अन्धौरी में टेम्पो चलाने वाले उनके पड़ोसी पाशा ने बताया कि सरकार हज यात्रा के लिए दरख्वास्त क़ुबूल कर रही है। बस फ़िर क्या था, फ़ारुख़ ने दुकान पर मंज़ूर को बैठाया और निकल पड़े। अर्जी लेकर शाम को घर पहुंचे तो सबके सामने अपने इरादों को ज़ाहिर किया। मान मनुव्वल के बाद सब राज़ी ख़ुशी हुए कि अब्बा और अम्मी हज पर जा रहे हैं। फ़ारुख़ खुदपरस्त इंसान थे और उन्हें इस बात का गुरूर था कि वे सरकार की दी हुई खैरात का इस्तमाल नहीं कर रहे थे।

शाम के अँधेरे में फ़ारुख़ ने सारे पैसे निकाल कर जोड़े - पूरे २ लाख थे। उनका और रुखसाना का हज का खर्च उठाने के लिए काफ़ी था। बस अब कल सुबह अर्जी सरकारी दफ्तर में जमा करना बाकी था। आने वाली सुबह का ख्वाब आँखों में सजाये,आज बहुत दिन बाद फ़ारुख़ चैन की नींद सोये थे।

आगे जारी …

चित्र साभार - मुहम्मद मेहदी करीम 

बुधवार, सितंबर 18, 2013

हज - क़िस्त १

फ़ारुख़ सईद की उम्र उन्सठ के करीब रही होगी। पिछले तीस बरस से वे अन्धौरी में दर्जी का काम कर रहे थे। दर्जीगिरी उनके खून में थी और ऊपर वाले की रहमत थी कि हाथ का काम था एकदम साफ़। कारीगरी का नये से नया नमूना उनकी दुकान के पीछे बने एक छोटे कारखाने में हर पहल ही ईज़ाद होता था। छोटे से गाँव में रहते थे मगर काम और नाम काफी दूर तक फैले थे। आजमगढ़ के बड़े से बड़े बनिए अपनी दुकान में फ़ारूख़ के सामान की नुमाइश करते थे।

फ़ारुख़ अपने पेशे पर फ़क्र करते थे मगर उसके मज्द से इतना राजी न थे। बदलते वक्त के साथ आज मशीन से बने, मघरबी डिजाईन वाले कपड़े, काफी कम कीमत पर बाजार में मुयस्सर हों तो कोई क्यूँ हाथ की कारीगरी का इंतज़ार करे। होने वाले मुनाफे का अधिकतर हिस्सा बजाज अपनी अंटी में खोंस लेते थे। बची खुची कमाई कारीगरों की पगार, दुकान का सामान और खाते बनाने में चुक जाती थी। घर खर्च बादिक्कत ही निकल पाता था इस वजह से घर का माहौल कुछ तल्ख़ रहता था।


काम के अलावा वे एक और चीज़ पर फक्र करते थे और वह थी उनकी वल्दियत। कई पुश्तों पहले उनके दादे-परदादे मालवण - कोंकण से आजमगढ़ आये थे। उनका मानना था कि वे, आठवीं सदी में हिन्दुस्तान आये और यहीं बसे, अरब सौदागरों की नस्ल से हैं और बसरा (ईराक) में उनकी अस्ल बसायत है। घर में फाक़े मारने की हालत होने पर भी वे अपनी नाक न नीचे होने देते थे।

यूँ तो तंगी के कारण फ़ारुख अपने बीवी और बच्चों के ताने सुनते रहते थे मगर अनसुना सा कर देते थे। बड़ा बेटा मंज़ूर काफी समय से अपनी परचून की दुकान खोलने के लिए कुछ पैसे माँग रहा था, मंझला सलीम नए कपडे, छोटा शाहरुख़ क्रिकेट का बैट और बेटी अफ़साना चूड़ी, लिपस्टिक और चुनरी। रुखसाना के सोने के कंगन तो कई साल से कतार में थे। मगर फारुख थे बड़े घाघ। मज़ाल है कि कभी उनके कान पर जूँ भी रेंग जाये!

हाँ मगर किसी को बताये बिना, वे काफ़ी समय से कुछ रक़म जमा कर रहे थे। न जाने क्या चल रहा था उनके दिमाग में?


आगे जारी…

चित्र साभार Coloribus 

सोमवार, सितंबर 09, 2013

हैप्पी गणेश चतुर्थी - २

आज करीब पाँच साल बाद फिर, मेरे मित्र गणेश चतुर्थी के दिन दनदनाते हुए मेरे घर के अन्दर आये। पिछली बार की तरह इस बार भी कुछ बडबडाते हुए चक्कर काटने लगे। पूर्व अनुभव होने के कारण इस बार हमने पहले ही लड्डू, बर्फी और समोसे की प्लेट उनके आगे कर दी। कॉफ़ी के साथ उनको अन्दर गटकने का इंतजार किया। फिर कहा - "हैप्पी गणेश चतुर्थी "

इस बार वे मुस्कुराने लगे। बोले, "यार तुम तो सही मजे ले रहे हो हमारे" । मैंने कहा, "नहीं भाई ऐसी कोई बात नहीं। त्योहार तो होते ही हैं आपसी सदभाव को बढ़ावा देने के लिए। अपने परिवार, मित्रों और इष्टजनो से मिलने और खुशियाँ बाँटने के लिए। यही तो हमारे देश और धर्म की परंपरा है ..…" 

"बस यार", मेरा वाक्य समाप्त होने के पहले ही उन्होंने काट दिया। "परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन का पाठ सफ़ेद दाढ़ी वाले बुजुर्गों को सुनाना। अभी इन सब चीज़ों को सुनने की शक्ति नहीं है मुझमें। तुम बस तकिया इधर सरकाओ ", उन्होंने तख़्त पर लगभग लुढ़कते हुए कहा।

"अच्छा चलो छोड़ो, तुम ये रसगुल्ले चखो, कल ही एक मित्र कोलकाता से लाये हैं ", मैंने तकिया और रसगुल्ले की प्लेट दोनों आगे कर दिए।


"अमाँ क्या बतायें यार, वही मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। पिछले पांच सालों से वही रोना है। गणपति बप्पा के नाम पर पेड शोरगुल। " नियति के अधीन हो चुके इंसान की तरह वे बोले।

"अरे नहीं यार काफी बदलाव आये हैं अब, ग्रीन इकोसिस्टम को मद्देनज़र रखते हुए गणेशजी की प्रतिमा अब मिटटी से बनायी जाती है, कोई केमिकल रंग या आर्टिफिशियल पदार्थ का इस्तेमाल नहीं किया जाता। " हमने तीर छोड़ा।

" अरे आग लगे वो इंडियन आइडल जूनियर को - सब माँ बाप अपने बच्चे को लता मंगेशकर का अगला अवतार बनाने पर तुले हैं। अब आज की ही लो - आरती वगैरह ख़त्म होने के बाद माता पिता अपने सुपुत्र और सुपुत्रियों को माइक पकड़ा देते हैं और वो रियाज़ करना शुरू। बच्चे भी ऐसे नामाकूल - माइक को मुँह के अन्दर घुसेड ऊँचे राग अलापना शुरू ! बच्चों का ख़तम हुआ तो आंटियां क्लासिकल हिंदुस्तानी और कर्नाटिक संगीत पर गला फाड़ना लगती हैं। गणेश जी का बस चले तो नरसिम्हा की तरह अवतार लेकर, प्रतिमा फाड़ बाहर निकलें और अपनी सूंड से लपेट कर माइक के टुकड़े टुकड़े कर दें। "

"अरे नहीं यार बच्चे हैं ", हमने कहा।

"तुम नहीं समझोगे यार", वे बोले। "मैं तो सोच रहा हूँ कि बच्चों की आवाज़ रिकॉर्ड कर रख ली जाए। रोज शाम को बजाऊंगा तो कम से कम घर के मच्छर भागने के काम आएगा।"

ठहाका लगाते हुए हमने टीवी का रिमोट उनके हाथ में दिया और कहा लो तुम ताजा खबरें सुनो। अरे नहीं, यूँ ही ,ऐसे ही, खामखाँ और कुछ ना नुकुर करने के बाद उन्होंने रिमोट हाथ में लिया और तकिया पीछे लगाये तख़्त पे लधर गए। कुछ देर बाद उनके खर्राटों की वजह से मेरा सोना दुर्भर था।