रविवार, सितंबर 14, 2008

सिटी बस में दो महिलाएं - भाग दो

बस ने फ़िर से गति पकड़ ली थी। अपनी सफ़लता से उत्साहित होकर वो पुरूष गप्पियाने लगे। बस में बैठे लोग भी इस क्षणिक परिहास को मरुस्थल में जल की बूँद समझ उकता गए कुछ फ़िर से झोंके खाने लगे, तो दूसरों ने अखबार में नज़रें गढा लीं। लड़की भी इसे दैवगति समझ हताश भाव से बस के खंभे को ताकने लगी।

बस अगले स्टाप पर रुकी एक मोटी सी महिला लगी चढी। अधेड़ उम्र, सुनहरी साड़ी, आंखों पर काला धूप का चश्मा, कानों में बड़े रिंग, माथे पर औसत से कुछ बड़ी लाल रंग की बिंदी, कलाईयों में सोने के बड़े कंगन और पैरों में ऊँची हील। हाथों में बड़े थैले जिनमे शायद सेल से खरीदी गई साड़ी और सूट थे।

बस में ऊपर चढ़ने लगी तो दरवाज़े पे कुछ लड़के लटके हुए थे। ये लटकते हुए जीव भी अजीब नस्ल हैं। हर बड़े शहर चाहे दिल्ली हो या बंगलोर, कलकत्ता हो या मुंबई की बसों से लटकते मिल जायेंगे। शायद तेजी से बढती आबादी के सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है ये ! बस चाहे भरी हो या खाली ये जरूर दरवाजे पर लटकेंगे। किसी की नहीं सुनते कंडक्टर बेचारा रोज का कहता हुआ थक जाता है। स्टाप पर बस रुकते ही एक हुजूम आगे बढ़ता है ये लट्क्न्त जीव नीचे उतारते हैं सड़क पर थूकते हुए, आसपास गुजरती हुई लड़कियों को घूरते हैं। भीड़ के ऊपर चढ़ने का इंतजार करते हैं। फ़िर उसी हालत में एक हाथ बस के किसी कोने में फसांकर यूँही लटक जाते हैं। कोई मनोवैज्ञानिक होता तो जरूर इनको स्केपिस्ट जीव बताता!


खैर, उस महिला ने इन 'लट्क्न्त' जीवों की जम कर ख़बर ली। ऐसे डांट पिलाई कि लड़के भीगी बिल्ली बन गुपचुप रह गए। वैसे लड़के कुछ कम न थे पूरे दबंग! मगर उस महिला के डीलडौल और तेज आवाज से हुए इस गुरिल्ला अटैक' से भौंचक्के रह गए। न कुछ कहते बन पाया, न कुछ करते। चुपचाप ऊपर आ तो गए, मगर क्षण भर में ही अपने खोये हुए पौरुष का एह्साह हुआ। महिला आगे जा चुकी थी सो फ़िर से प्रत्यक्ष मुठभेड़ की संभावना को नकारते हुए फ़िर से आकर दरवाजे पर लटक गए।

गरीब कमजोर जनता को धकेलते हुए और कुछ बदनसीबों का पददमन करते हुए महिला रणभूमि में विजयी सेना की भांति रोंदते हुए आगे बढती जा रही थी। लगभग सभी सीट भरी हुई थी। तभी उसकी नज़र आगे की सीट पर पड़ी। महिला आरक्षित सीट पर विराजमान पुरूष !देखकर ही मन में सुगबुगाहट उठी। फ़िर बगल में सुकुचाई हुई, बस के खंभे को कसकर पकड़ी लड़की दिखाई दी। पल भर में ही सारा मांजरा उसकी समझ में आ गया।

कुलांचे मारते हुए सीट तक पहुँची और अंगार भरी निगाहों से उन पुरुषों की तरफ़ देखा। इस बार वे इस महिला की उपस्थिति को नकार न पाये। उसके जौहर वे पहले ही देख चुके थे सो ज्यादा हीलहुज्जत किए बिना ही उठ लिए। महिला मय बैग सीट पर धम्म से बैठी। लड़की को इशारा कर पास बुलाया और साथ में बिठा लिया।

उस लड़की के लिए यह एक नया पाठ था। उसने नज़रें उठा कर उन पुरुषों की तरफ़ देखा, जो खिसिया कर अब स्थानीय राजनीति पर बहस करने लगे थे। खिड़की से आती हुई बयार से पसीने के साथसाथ उसका संकोच भी हवा हो रहा था।

चित्र साभार: betta design (क्रिएटिव कॉमन लाइसेंस)

सिटी बस में दो महिलाएं - भाग 1

सिटी बस ठसाठस भरी हुई थी। जिधर देखो सर, हाथ, पैर ही दिखायी पड़ते थे! लोग इस कदर भरे हुए थे कि मालूम होता था मानो एक दडबे भर मुर्गियों को एक पिंजरे में ठूंस दिया गया हो। कहीं कोई कुहनी किसी कमर को गुदगुदा रही थी, तो कहीं कुछ पैर दूसरों पर विराजमान थे। कुछ लोग मय झोला- बैग सफर कर रहे थे- जिससे बस की रक्त वाहिनियों का संचरण अति संकुचित हो चुका था। इंजन की आवाज से लगता था मानो बस आंखिरी साँसे गिन रही हो।

आगे की सीट महिलाओं के लिए आरक्षित रहती हैं। आज बस में महिलाओं की संख्या कम थी इसलिए कुछ पुरूष इस मौके का फायदा उठा कर कब्जा जमाये बैठे थे। तभी बस में एक नवयुवती चढी - लम्बी-दुबली सी, सकुचाई नजरों से इधर उधर देखती हुई आगे बढ़ी। लगता था ९ से ५ का अपना दफ्तर का कोटा पूरा करके आई थी। बस दुबारा चले हुए पाँच मिनट हो चुके थे। अब लड़की की जान में जान आई। पिछले पाँच मिनट से वह आसपास के वातावरण से अभिज्ञ सर झुकाए खड़ी थी। अब उसके चेहरे के भाव कुछ संयत हुए - उसने सर उठा कर चारों ओर नज़रें घुमाई, कुछ महिला आरक्षित सीट पर पुरूष बैठे थे।

उसके संकोची मन में कई विचार उठे लगे, कुछ अनिर्णीत पलों के बाद वह आगे बढ़ी और उस सीट के पास जाकर खड़ी हो गई। उसे लगा कि सीधे कह देना उचित न होगा, वहां बैठे पुरूष उसके लिए स्वतः सीट खली कर देंगे।


५ बजे कई दफ्तरों में छुट्टी हो जाते है। दिन भर से सर खपा कर लोग सीधे अपने घर, अपने परिवार के पास जाना चाहते हैं। बड़े शहरों में किसी को एक दूसरे से कोई मतलब नही, सब अपनी धुन में मस्त रहते हैं। यह कोई छोटा-मोटा क़स्बा नही कि आप भोजन के पश्चात् एक चक्कर काटने निकले तो आठ-दस पहचान वालों से दुआ सलाम हो गई। यह महानगर है ! यहाँ अपने पड़ोसी का परिचय प्राप्त किए बिना ही जिंदगी निकल जाती है।

वहां बैठे हुए पुरूष भी इस '९-५' नस्ल की उत्पत्ति थे - एकदम मोटी खाल! इस बात को ताड़ गए, निर्लज भावः से जम्हाई भरते हुए खिड़की से बाहर हवा खाने लगे। पूरे बस में बैठे लोगों की निगाहें उस लड़की पर थी। लड़की का चेहरा लज्जा से लाल था। सर झुकाए, वह पेरों के अंगूठे से कुरेदने का असफल प्रयास करने लगी। मन में रह -रह कर विचार उठ जाते थी - हाय क्यों मैंने ऐसे अपनी भद्द करवाई!

(आगे जारी...)

चित्र साभार: http://www.cepolina.com/

बुधवार, सितंबर 03, 2008

हैप्पी गणेश चतुर्थी!

मैं दिन भर के काम पूरे कर बैठा ही था कि अचानक मेरे एक मित्र दनदनाते हुए घर के अन्दर आए। हाव भाव कुछ अच्छे प्रतीत नही हो रहे थे, कुछ बडबडा भी रहे थे मन ही मन शायद। आते ही कमरे में चक्कर काटने लगे। मैंने थाह लेने के लिए कहा, "हैप्पी गणेश चतुर्थी"! बस फ़िर क्या था उनके सब्र का बाँध टूट पड़ा!

"अजीब बदतमीजी है ! मतलब गुंडागर्दी है क्या? कुछ भी करेंगे?", एकदम से दो -तीन सवाल उन्होंने दाग दिए। मेरे द्वारा दिए गए पानी के एक ग्लास को गटक कर थोड़ा नरम पड़े। "यह लोग भी , गणेश चतुर्थी के बहाने बस कुछ भी करना शुरू कर देते हैं!"

"अरे क्या हुआ कुछ खुल कर बताइए ?" मैंने सहानुभूति के भाव चेहरे पर लाकर पूछा।

"अरे यार क्या बताऊँ? सुबह बजे से फुल वोल्यूम में गाने लगा देते हैंवह भी अध्यात्म रस से भरपूर भक्ति गीत नही - बल्कि हिमेश रेशमिया छाप, कव्वाली टाइप गानेगाने के बोल कम और छः फुटिया स्पीकर से निकली हुई बीट्स ज्यादा सुनाई देती हैंसुबह झक मारकर उठा और दूध लेने के लिए नीचे गया तो देखा कि सामने सड़क खुदी हुई है! एक ही गली में बमुश्किल २० मीटर की दूरी पर चार पंडाल छापे हुए हैंअन्दर "गणपति बप्पा" शान से बैठे हुए 'मोनालिसा स्माइल' दे रहे हैं मालुम होता था मानो हमारी हालत पर ही तिरस्कार भरी दृष्टि हो!"


"अरे यह तो हर साल का खेल है - कभी दुर्गा पूजा, कभी गणेश चतुर्थी तो कभी और कुछ ", कहकर हमने भी बहती गंगा में हाथ धो लिए।

"अजी अब क्या बताएं आपको, गली के सारे निकम्मे लौंडों का किया धरा है ये सबदो हफ्ते पहले ही कुछ मुस्टंडे आए थे चंदा मांगने" उन्होंने फुंफकार मार कर कहा। "और हफ्ते भर बाद देखियेगा यही "गणपति बप्पा" कहीं गंदे पानी में फांके मार रहे होंगे!", उनकी बातों में कटाक्ष का भारी वजन था।

"जी हाँ मुझे भी कल कुछ अदन्नी से बच्चे एक रसीद पुस्तिका लिए हुए मिल गए थे गली के मोड़ पेगणपति के लिए चंदा मांग रहे थे - बड़ी मुश्किल से टरकाया मैंने!", हम भी दांव पर दांव मार रहे थे।

"अब क्या कहें बमुश्किल पिछले महीने ही नगरपालिका वालों ने सड़क की मरम्मत करवाई थीऔर अभी तो बरसात भी पूरी तरह नही ढली हैझुमरी तल्लैया का अगला अवतरण यहीं होने वाला है।", वो बेधडक चालू थे। "अभी शाम को थककर घर आया हूँ तो वही रात्री-गान का 'डेली डोज'। मतलब आज की रात को जगराता?"

"Religion is the opium of masses" और "आजकल का भौतिकवादी समाज" ऐसे कुछ मार्क्सवादी विचार हमने भी ठेल दिए। अब वार्तालाप में मजा सा आने लगा था।

मगर वह तो पूरी तरह से बिदके हुए थे। "अजी साहब, कोई इन भले लोगों को बताये - परमात्मा ने रात्रि विश्राम के लिए बनाई है ; जिसको 'राखी सावंत नैट' मनानी हो वो डांस बार में जाए!"

हमने ठहाके के साथ मिठाई की तश्तरी उनकी तरफ़ सरकाई। दो -तीन कदाचित स्थूल लड्डुओं और निर्बल बर्फियों को निपटाने के बाद वो कुछ ठंडे पड़े। "अच्छा आपका बिस्तर यही लगवा देते हैं, आज रात तो आराम कर लीजिये!", यह प्रस्ताव उन्हें संयत कर गया।

"अजी आज की रात तो कट जायेगी मगर अभी तो विसर्जन में दस दिन बाकी हैं, तब तक तो हमारा गोभी चूरमा बन जायेगा।" ऐसे कहते हुए उन्होंने चद्दर मुंह पर ले ली।

Image Credits: Wikipedia