सोमवार, नवंबर 19, 2007

मेरे सपनों की लड़की ...

"लड़का और लड़की बस स्टॉप पर मिलते हैं. उनकी नज़रों का सामना होता है और आँखों ही आँखों मैं प्यार हो जाता है. कुछ ही देर में वो मग्न होकर पेड़ों के इर्द गिर्द चक्कर काटते हुए प्रेमगीत गाने लगते हैं. पीछे पृष्ठभूमि में कुछ भड़कीले कपड़े पहने हुए युवक - युवतियां ताल में ताल मिलकर नृत्य करना शुरू कर देती हैं." - थोड़े से फेरबदल के बाद यह सीन किसी भी बॉलीवुड फीचर फ़िल्म का हो सकता है .

आज हम आए बाये जब कोई हिन्दी फ़िल्म देखते हैं तो यही विचार मन में आता है कि आज की फिल्में यथार्थ से एकदम परे हो चली हैं. "उस मुई को देखो ,ऐसे कपड़े भी कोई पहनता है भला ?" , " इन साहब को देखिये जाने किस आसमान में सवार हैं, भला ऐसे भी कोई किसी से बात करता है ?" और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं . कहने का अभिप्राय यह है कि हम सब अपनी समझ के हिसाब से परदे पर आने वाले हर पात्र का चीर फाड़ कर निष्कर्ष निकलते हैं कि "ये फ़िल्म वाले तो आजकल कुछ भी दिखाने लगे हैं !


मगर कहीं ऐसा तो नहीं कि हम उस रूमानियत की दुनिया को भूल चुके हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि अविश्वास का चश्मा नाक पर चढाये हम अति - यथार्थवादी हो चले हैं .ऐसी भूलें और बातें जो आज एक किरदार परदे पर कर रहा है कभी हमने भी की होंगी ! यदि ऐसा है तो इसमे बॉलीवुड के कथाकारों /निर्देशकों की गलती नहीं , वो तो बेचारे बस हमारे चश्मे पर चढी धूल की परत को साफ करने की कोशिश कर रहे हैं ! अगर उनकी कुछ गलती है तो सिर्फ़ ये कि वो अतिशयोक्ति के शिकार हो चले हैं.


अब यह पढिये....
एक जनाब की नज़रें न्यूयोर्क की भीड़-भाड़ वाली सबवे ट्रेन में एक बाला से टकरा गयीं - और फ़िर क्या था पहली नज़र में प्यार हो गया ! अब भीड़ इतनी कि वो लड़की उनकी आंखों से ओझल हो गई. बहुत ढूँढने पर भी जब इनको अपने ख्वाबों कि वो परी न मिली तो इन जनाब ने उसको ढूँढने के लिए एक वेबसाइट बना डाली! और देर सबेर इनको वो मिल भी गई - अब प्रेम कहानी का अंत क्या हुआ यह तो वही दोनों जाने मगर बात दिल को छू गई.

4 टिप्‍पणियां:

  1. कहीं यह ब्लॉग उसी चक्कर में तो नहीं बना? हम जबरी टिपेरे जा रहे हों और इंतजार किसी और का हो!

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  2. कृष्णजी नमस्कार,
    आपकी टिपण्णी के लिए धन्यवाद. आप जैसे सुधीजनों के मुख से प्रशंसा सुनकर आत्मविश्वास तो मिलता ही है - साथ में भविष्य में और अच्छा लिखने की प्रेरणा भी मिलती है. बस मार्गदर्शन करते रहिये!
    धन्यवाद,
    सौरभ

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  3. बनने को तो कभी भी कहीं भी कहानियाँ बन सकती हैं. अगर यकीं न आए तो यहाँ पर आकर देखिये.. मेरी आखों देखी कहानी है एकदम.. अभी दो दिन पहले की ही.. सीमाओ में बाँध जाए तो वो प्रेम ही क्या..
    http://punitomar.blogspot.com/2007/11/blog-post_18.html

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