शनिवार, फ़रवरी 16, 2008

फ्रांस की वाईन और बंगलादेश के मच्छर

ग्लोबल वार्मिंग वाले काफ़ी समय से चिल्ल पो मचा रहे हैं - इस बार शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिलने से उनके प्रयासों को बढावा भी मिला है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति अल गोर २०० का चुनाव हारने का गम ग्लोबल वार्मिंग के जरिये भुला रहे हैं। अमरीका और यूरोप के देशों में तो यह काफ़ी संवेदनशील मामला है। जहाँ भारत, रूस, कनाडा, यूरोपियन यूनियन और हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने क्योटो प्रोटोकॉल को प्रमाणित किया है वहीं सबसे बड़े दोषी अमरीका, चीन और जापान की इस मामले में बहुत भद्द पिटी है।

वैज्ञानिक कहते हैं की ग्लोबल वार्मिंग के वजह से कैटरिना जैसे तूफानों की संख्या में कमी आएगी (ध्रुवों और भूमध्य रेखा के तापमान का अन्तर कम होने के कारण), तो कुछ कहते हैं बढ़ जायेगी। कुल मिलकर मामला थोड़ा पेचीदा है।


इंसान टेक्नोलॉजी रुपी भस्मासुरी वरदान लेकर विचलित है, इधर उधर भटक रहा है किसी को भस्म करने के लिए - कभी शेरों को, कभी जंगलो को, कभी ग्लेशियर-समुद्रों को तो कभी ख़ुद की जड़ें काटने पे उतारू है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत और बंगलादेश के मच्छर और पिस्सू उड़कर यूरोप के देशों में पहुँच जायेंगे - इसी बहाने मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों पर से तीसरी दुनिया का एकाधिकार भी निकल जाएगा। साथ ही यूरोप के देशों की बर्फ पिघलकर बंगलादेश के तट को डूबा देगी - मानो बदला लेने के लिए! पोलर भालू ध्रुवों से जमीन की तरफ़ बढ़ रहे हैं तो शार्क और केकडे अंटार्टिका पर हमले को तयार हैं



फ्रांस में गर्मी के कारण अंगूर की फसल दस दिन पहले पक रही है। ऐसे अंगूरों में चीनी की मात्रा और P. H. लेवल दोनों बढ़ने के कारण फ्रांस की मशहूर वाईन का स्वाद भी बदल सकता है। यह भी हो सकता है की फ्रांस की वाईन अब ब्रिटेन में उगाई जाए !

बुधवार, फ़रवरी 13, 2008

भइया लोगों के लिए कुछ सबक

आजकल महाराष्ट्र में 'महाराष्ट्रियता' के नाम पर जो भी हो रहा है - या हुआ है उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है। खैर, इस मामले में बहुत कुछ कहा और लिखा जा रहा है मीडिया में - सो मैं और कुछ गढ़ना नही चाहता। इसके पीछे की सच्चाई तो यह है। वैसे "डेमोक्रेजी" में यह सब तो होता रहता है। भारतीयों का 'भारत निकाला' हो रहा है - वह भी पूरे प्रचार-प्रसार के साथ। कोई भले ही कुछ कहे, सच यह है की इस सब के पीछे कई मराठी 'मानुसों' का मूक समर्थन भी है। वही सब कहा जा रहा है जो जनता सुनना चाहती है। बस किरदार और जगह बदली हैं - कभी राज - कभी बाल, कभी महाराष्ट्र - कभी कश्मीर तो कभी गुजरात, कभी तसलीमा तो कभी हुसैन। आख़िर जनता का राज जो है!


सबको आरक्षण चाहिए - गूर्जर को और मीणा को, ईसाई को और मुस्लिम को, पिछडों को और सवर्णों को, तो महाराष्ट्र के मराठी क्यों चुप रहें? उनकी तो यह जन्मभूमि है। वह तो फ़िर भी राज ठाकरे हैं, सोचिये अगर महाराष्ट्र की जगह बिहार / यूपी हो - तो लालू और मायावती गैर 'भइया' लोगों का क्या हाल करें ! दुनिया भर में बिहारियत का दंभ भरने वाले लालू आज चुप हैं, हाँ बीच - बीच में कुछ बडबडाकर अपनी असहमति जरुर जाहिर कर देते हैं। "दलित की बेटी" मायावती भी चुप हैं - भले ही इस "महाराष्ट्रियता" का प्रहार सबसे अधिक इसी तबके पर है। चुप हैं हमारे राष्ट्रीय नेता आडवाणी और अटल, सोनिया जी तो आजकल 'ओवर एक्सेर्शन' की शिकार हैं, और वामपंथी बंगाल और केरल के बाहर की राजनीति में ज्यादा कुछ दिलचस्पी नही रखते हैं।

इनसे सबक
उपरोक्त बातों से आप समझ ही गए होंगे - यह सब होता आ रहा है और होता रहेगा। सरकार से ज्यादा उम्मीद न रखें - जब तक कि आप कुछ ख़ास वोट बैंक के हिस्से न हों। इस ख़बर के अनुसार सिर्फ़ नासिक शहर से १०,००० उत्तर भारतीय अपने घरों की ओर प्रस्थान कर चुके हैं। प्रशिक्षित कामगारों की कमी की वजह से अभी तक व्यवसाय जगत को ५००-७०० करोड़ का नुकसान हो चुका है। ४० प्रतिशत छोटे और मध्यम वर्ग के उद्योग बंद हो चुके हैं। असंगठित मजदूरों और फड - ठेलो के जाने का नुकसान लगना थोड़ा मुश्किल है। अब इस सब नुकसान का भार महाराष्ट्र की जनता उठा पायेगी या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा।

सिर्फ़ निम्न वर्ग के लोगों पर हो रहे इन हमलों से डेमोक्रेजी का एक सच जाहिर हुआ कि "गिरे हुए को सभी लात मारते हैं"। क्या राज ठाकरे की हिम्मत यह सब कुछ आईटी इंडस्ट्री से जुड़े भइया लोगों के साथ करने की हिम्मत है - नहीं। तो पढो लिखो- जागरूक बनो, शिक्षा ही सबसे बड़ा हथियार है


अब समय आ गया है कि अपने घरों की तरफ़ लौटने वाले इन लोगों को अपनी राज्य सरकारों से सवाल करना होगा कि यह उद्योग धंधे क्यों नहीं उनके घर के नजदीक शुरू किए जाते। राज्य सरकारों के हाथ भी एक सुनहरा मौका लगा है - आज के समय में प्रशिक्षित कामगार एक महत्वपूर्ण जरूरत है। जो लोग पंजाब की भूमि में फसलें लहरा सकते हैं, मुम्बई में फल बेच सकते हैं, नासिक की फ़ैक्ट्रियों में अपना खून पसीना बहा सकते हैं वो अपने घर आकर क्या नही कर सकते तो क्यों न उत्तर भारत में उद्योग शुरू करके इन दुधारू गायों को दुहा जाए ? जिसे कहते हैं कि "Maharashtra's loss is Bihar's gain"। बाकी अपनी किस्मत अपने हाथ।