रविवार, सितंबर 14, 2008

सिटी बस में दो महिलाएं - भाग दो

बस ने फ़िर से गति पकड़ ली थी। अपनी सफ़लता से उत्साहित होकर वो पुरूष गप्पियाने लगे। बस में बैठे लोग भी इस क्षणिक परिहास को मरुस्थल में जल की बूँद समझ उकता गए कुछ फ़िर से झोंके खाने लगे, तो दूसरों ने अखबार में नज़रें गढा लीं। लड़की भी इसे दैवगति समझ हताश भाव से बस के खंभे को ताकने लगी।

बस अगले स्टाप पर रुकी एक मोटी सी महिला लगी चढी। अधेड़ उम्र, सुनहरी साड़ी, आंखों पर काला धूप का चश्मा, कानों में बड़े रिंग, माथे पर औसत से कुछ बड़ी लाल रंग की बिंदी, कलाईयों में सोने के बड़े कंगन और पैरों में ऊँची हील। हाथों में बड़े थैले जिनमे शायद सेल से खरीदी गई साड़ी और सूट थे।

बस में ऊपर चढ़ने लगी तो दरवाज़े पे कुछ लड़के लटके हुए थे। ये लटकते हुए जीव भी अजीब नस्ल हैं। हर बड़े शहर चाहे दिल्ली हो या बंगलोर, कलकत्ता हो या मुंबई की बसों से लटकते मिल जायेंगे। शायद तेजी से बढती आबादी के सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है ये ! बस चाहे भरी हो या खाली ये जरूर दरवाजे पर लटकेंगे। किसी की नहीं सुनते कंडक्टर बेचारा रोज का कहता हुआ थक जाता है। स्टाप पर बस रुकते ही एक हुजूम आगे बढ़ता है ये लट्क्न्त जीव नीचे उतारते हैं सड़क पर थूकते हुए, आसपास गुजरती हुई लड़कियों को घूरते हैं। भीड़ के ऊपर चढ़ने का इंतजार करते हैं। फ़िर उसी हालत में एक हाथ बस के किसी कोने में फसांकर यूँही लटक जाते हैं। कोई मनोवैज्ञानिक होता तो जरूर इनको स्केपिस्ट जीव बताता!


खैर, उस महिला ने इन 'लट्क्न्त' जीवों की जम कर ख़बर ली। ऐसे डांट पिलाई कि लड़के भीगी बिल्ली बन गुपचुप रह गए। वैसे लड़के कुछ कम न थे पूरे दबंग! मगर उस महिला के डीलडौल और तेज आवाज से हुए इस गुरिल्ला अटैक' से भौंचक्के रह गए। न कुछ कहते बन पाया, न कुछ करते। चुपचाप ऊपर आ तो गए, मगर क्षण भर में ही अपने खोये हुए पौरुष का एह्साह हुआ। महिला आगे जा चुकी थी सो फ़िर से प्रत्यक्ष मुठभेड़ की संभावना को नकारते हुए फ़िर से आकर दरवाजे पर लटक गए।

गरीब कमजोर जनता को धकेलते हुए और कुछ बदनसीबों का पददमन करते हुए महिला रणभूमि में विजयी सेना की भांति रोंदते हुए आगे बढती जा रही थी। लगभग सभी सीट भरी हुई थी। तभी उसकी नज़र आगे की सीट पर पड़ी। महिला आरक्षित सीट पर विराजमान पुरूष !देखकर ही मन में सुगबुगाहट उठी। फ़िर बगल में सुकुचाई हुई, बस के खंभे को कसकर पकड़ी लड़की दिखाई दी। पल भर में ही सारा मांजरा उसकी समझ में आ गया।

कुलांचे मारते हुए सीट तक पहुँची और अंगार भरी निगाहों से उन पुरुषों की तरफ़ देखा। इस बार वे इस महिला की उपस्थिति को नकार न पाये। उसके जौहर वे पहले ही देख चुके थे सो ज्यादा हीलहुज्जत किए बिना ही उठ लिए। महिला मय बैग सीट पर धम्म से बैठी। लड़की को इशारा कर पास बुलाया और साथ में बिठा लिया।

उस लड़की के लिए यह एक नया पाठ था। उसने नज़रें उठा कर उन पुरुषों की तरफ़ देखा, जो खिसिया कर अब स्थानीय राजनीति पर बहस करने लगे थे। खिड़की से आती हुई बयार से पसीने के साथसाथ उसका संकोच भी हवा हो रहा था।

चित्र साभार: betta design (क्रिएटिव कॉमन लाइसेंस)

सिटी बस में दो महिलाएं - भाग 1

सिटी बस ठसाठस भरी हुई थी। जिधर देखो सर, हाथ, पैर ही दिखायी पड़ते थे! लोग इस कदर भरे हुए थे कि मालूम होता था मानो एक दडबे भर मुर्गियों को एक पिंजरे में ठूंस दिया गया हो। कहीं कोई कुहनी किसी कमर को गुदगुदा रही थी, तो कहीं कुछ पैर दूसरों पर विराजमान थे। कुछ लोग मय झोला- बैग सफर कर रहे थे- जिससे बस की रक्त वाहिनियों का संचरण अति संकुचित हो चुका था। इंजन की आवाज से लगता था मानो बस आंखिरी साँसे गिन रही हो।

आगे की सीट महिलाओं के लिए आरक्षित रहती हैं। आज बस में महिलाओं की संख्या कम थी इसलिए कुछ पुरूष इस मौके का फायदा उठा कर कब्जा जमाये बैठे थे। तभी बस में एक नवयुवती चढी - लम्बी-दुबली सी, सकुचाई नजरों से इधर उधर देखती हुई आगे बढ़ी। लगता था ९ से ५ का अपना दफ्तर का कोटा पूरा करके आई थी। बस दुबारा चले हुए पाँच मिनट हो चुके थे। अब लड़की की जान में जान आई। पिछले पाँच मिनट से वह आसपास के वातावरण से अभिज्ञ सर झुकाए खड़ी थी। अब उसके चेहरे के भाव कुछ संयत हुए - उसने सर उठा कर चारों ओर नज़रें घुमाई, कुछ महिला आरक्षित सीट पर पुरूष बैठे थे।

उसके संकोची मन में कई विचार उठे लगे, कुछ अनिर्णीत पलों के बाद वह आगे बढ़ी और उस सीट के पास जाकर खड़ी हो गई। उसे लगा कि सीधे कह देना उचित न होगा, वहां बैठे पुरूष उसके लिए स्वतः सीट खली कर देंगे।


५ बजे कई दफ्तरों में छुट्टी हो जाते है। दिन भर से सर खपा कर लोग सीधे अपने घर, अपने परिवार के पास जाना चाहते हैं। बड़े शहरों में किसी को एक दूसरे से कोई मतलब नही, सब अपनी धुन में मस्त रहते हैं। यह कोई छोटा-मोटा क़स्बा नही कि आप भोजन के पश्चात् एक चक्कर काटने निकले तो आठ-दस पहचान वालों से दुआ सलाम हो गई। यह महानगर है ! यहाँ अपने पड़ोसी का परिचय प्राप्त किए बिना ही जिंदगी निकल जाती है।

वहां बैठे हुए पुरूष भी इस '९-५' नस्ल की उत्पत्ति थे - एकदम मोटी खाल! इस बात को ताड़ गए, निर्लज भावः से जम्हाई भरते हुए खिड़की से बाहर हवा खाने लगे। पूरे बस में बैठे लोगों की निगाहें उस लड़की पर थी। लड़की का चेहरा लज्जा से लाल था। सर झुकाए, वह पेरों के अंगूठे से कुरेदने का असफल प्रयास करने लगी। मन में रह -रह कर विचार उठ जाते थी - हाय क्यों मैंने ऐसे अपनी भद्द करवाई!

(आगे जारी...)

चित्र साभार: http://www.cepolina.com/

बुधवार, सितंबर 03, 2008

हैप्पी गणेश चतुर्थी!

मैं दिन भर के काम पूरे कर बैठा ही था कि अचानक मेरे एक मित्र दनदनाते हुए घर के अन्दर आए। हाव भाव कुछ अच्छे प्रतीत नही हो रहे थे, कुछ बडबडा भी रहे थे मन ही मन शायद। आते ही कमरे में चक्कर काटने लगे। मैंने थाह लेने के लिए कहा, "हैप्पी गणेश चतुर्थी"! बस फ़िर क्या था उनके सब्र का बाँध टूट पड़ा!

"अजीब बदतमीजी है ! मतलब गुंडागर्दी है क्या? कुछ भी करेंगे?", एकदम से दो -तीन सवाल उन्होंने दाग दिए। मेरे द्वारा दिए गए पानी के एक ग्लास को गटक कर थोड़ा नरम पड़े। "यह लोग भी , गणेश चतुर्थी के बहाने बस कुछ भी करना शुरू कर देते हैं!"

"अरे क्या हुआ कुछ खुल कर बताइए ?" मैंने सहानुभूति के भाव चेहरे पर लाकर पूछा।

"अरे यार क्या बताऊँ? सुबह बजे से फुल वोल्यूम में गाने लगा देते हैंवह भी अध्यात्म रस से भरपूर भक्ति गीत नही - बल्कि हिमेश रेशमिया छाप, कव्वाली टाइप गानेगाने के बोल कम और छः फुटिया स्पीकर से निकली हुई बीट्स ज्यादा सुनाई देती हैंसुबह झक मारकर उठा और दूध लेने के लिए नीचे गया तो देखा कि सामने सड़क खुदी हुई है! एक ही गली में बमुश्किल २० मीटर की दूरी पर चार पंडाल छापे हुए हैंअन्दर "गणपति बप्पा" शान से बैठे हुए 'मोनालिसा स्माइल' दे रहे हैं मालुम होता था मानो हमारी हालत पर ही तिरस्कार भरी दृष्टि हो!"


"अरे यह तो हर साल का खेल है - कभी दुर्गा पूजा, कभी गणेश चतुर्थी तो कभी और कुछ ", कहकर हमने भी बहती गंगा में हाथ धो लिए।

"अजी अब क्या बताएं आपको, गली के सारे निकम्मे लौंडों का किया धरा है ये सबदो हफ्ते पहले ही कुछ मुस्टंडे आए थे चंदा मांगने" उन्होंने फुंफकार मार कर कहा। "और हफ्ते भर बाद देखियेगा यही "गणपति बप्पा" कहीं गंदे पानी में फांके मार रहे होंगे!", उनकी बातों में कटाक्ष का भारी वजन था।

"जी हाँ मुझे भी कल कुछ अदन्नी से बच्चे एक रसीद पुस्तिका लिए हुए मिल गए थे गली के मोड़ पेगणपति के लिए चंदा मांग रहे थे - बड़ी मुश्किल से टरकाया मैंने!", हम भी दांव पर दांव मार रहे थे।

"अब क्या कहें बमुश्किल पिछले महीने ही नगरपालिका वालों ने सड़क की मरम्मत करवाई थीऔर अभी तो बरसात भी पूरी तरह नही ढली हैझुमरी तल्लैया का अगला अवतरण यहीं होने वाला है।", वो बेधडक चालू थे। "अभी शाम को थककर घर आया हूँ तो वही रात्री-गान का 'डेली डोज'। मतलब आज की रात को जगराता?"

"Religion is the opium of masses" और "आजकल का भौतिकवादी समाज" ऐसे कुछ मार्क्सवादी विचार हमने भी ठेल दिए। अब वार्तालाप में मजा सा आने लगा था।

मगर वह तो पूरी तरह से बिदके हुए थे। "अजी साहब, कोई इन भले लोगों को बताये - परमात्मा ने रात्रि विश्राम के लिए बनाई है ; जिसको 'राखी सावंत नैट' मनानी हो वो डांस बार में जाए!"

हमने ठहाके के साथ मिठाई की तश्तरी उनकी तरफ़ सरकाई। दो -तीन कदाचित स्थूल लड्डुओं और निर्बल बर्फियों को निपटाने के बाद वो कुछ ठंडे पड़े। "अच्छा आपका बिस्तर यही लगवा देते हैं, आज रात तो आराम कर लीजिये!", यह प्रस्ताव उन्हें संयत कर गया।

"अजी आज की रात तो कट जायेगी मगर अभी तो विसर्जन में दस दिन बाकी हैं, तब तक तो हमारा गोभी चूरमा बन जायेगा।" ऐसे कहते हुए उन्होंने चद्दर मुंह पर ले ली।

Image Credits: Wikipedia

शनिवार, अगस्त 23, 2008

एक ट्रेन यात्रा

जेठ की भरी दुपहर! ट्रेन के अन्दर बैठे सभी मुसाफिर बेदम हैं। कमीज पसीने से गीली हो पीठ से चिपकी जा रही है। पहली बरसात में हर चप्पे पर फूट पड़ने वाले मशरूमों की तरह, गले में उग आई घमोरियों को खुजला - खुजला कर एक बच्चा परेशान था। उसकी माँ बीच - बीच में "एक के साथ दो मुफ्त" ब्रांड वाले पावडर को छिड़क देती थी। मगर कुछ ही समय में पसीना बरसाती नदियों की भांति उसे बहा ले जाता था। कुंठित होकर बच्चा अपने पैर पटकने लगता तो बगल में बैठे उसके पिता आँखे दिखने लगते। बच्चा आशा भरी नजरों से बार-बार खिड़कियों की तरफ़ देखता था। अभी कुछ समय पहले ही पिता ने खिड़की खोलने की कोशिश की थी। जरा सी जगह मिलते ही यूँ गरम हवा का झोंका अन्दर आया मानो गरम तवे पर हवा को सेका गया हो। तबसे खिड़कियाँ तो बॉर्डर की तरह सील की जा चुकी थी। जरा सा भी हलचल हुई तो गार्ड नुमा यात्री आँखें तरेरने लगते - जुर्रत है क्या?

माँ बच्चे का सर सहलानी लगी । ट्रेन चले हुए ३ घंटे तो हो ही चुके थे। इस बार गर्मियों की छुट्टियों में नानी के घर जायेंगे - इस प्रलोभन मात्र को मन में दबाये हुए बच्चा कुछ शांत था। नानी के घर पहुँच कर बर्फ वाला रूह अफजा और रसना मिलेगा - फ़िर नानी की गोद में बैठ कर रबडी वाली ठंडाई उडाई जायेगी! डेढ़ महीने तक पढ़ाई से छुट्टी और टीवी देखने की आजादी। फ़िर पिछली गर्मियों में बनाये हुए दोस्तों से भी तो मिलना है। ही मैन, सुपर कमांडो ध्रुव और न जाने कौनसे पोस्टर और स्टीकर इकठ्ठा किया हैं उसने - दोस्तों पर रोब ज़माने के लिए।

बच्चे की माँ भी सोच में थी - न जाने गुड्डी के रिश्ते का क्या हुआ? उसकी शादी के बाद बस छोटी बहिन गुड्डी की ही जिम्मेदारी रह गई थी। पिछले हफ्ते ही माँ ने ख़बर दी की एक लड़का देख कर गया है। लड़का तो अच्छा ही था - लाल बाज़ार वाले स्व. लाला रतनलाल जी प्रपोत्र है, ऊँचा खानदान , भरे बाज़ार में दुकान, तिमंजिला घर, परिवार के नाम पर बस एक छोटी बहिन - वो भी कुछ समय बाद विदा हो जायेगी। और माँ -बाप तो बस कब्र में पाँव लटकाए बैठे हैं। राज करेगी अपनी गुड्डी। वह घर जाकर माँ -पिता को समझायेगी कि ये वर हाथ से न जाने दें। जो भी देना दुआना है बस पूरा करो - लड़का हाथ से निकलना नही चाहिए।

राजू की पढ़ाई का भी न जाने क्या हुए। पिछले साल ही द्रितीय श्रेणी से बी. कॉम. किया है मगर नौकरी का कुछ पता नही। अभी घर के काम में हाथ बंटाता है। पिताजी की नौकरी और दो साल तक है - तो काम चल जाएगा। मगर जब घर में बहू आएगी तो क्या होगा?


इस बार इंदौर में आम की अच्छी फसल हुई है। पेड़ तो मानो लद गए हैं - दो बोरे अचारी आम ट्रेन की सीट के नीचे रखे हुए हैं। भोपाल जाकर अचार बनाया जायेगा - कुछ हाथ बंट जाएगा, यहाँ तो अकेले ये सब करने की हिम्मत ही नही है।

बच्चे के पिता शून्य में तांकते हुए सोच रहे हैं। वापस आकर छोटू का एड्मिशन नए अंग्रेज़ी स्कूल में करना है। आख़िर कब तक इस हिन्दी मध्यम बाल विद्या भारती विद्यालय में पढेगा? पिछले हफ्ते शर्माजी यूँ दफ्तर में बघिया रहे थे - उनके सुपुत्र को अंग्रेज़ी में पूरे पिचानवे 'मार्क्स' मिले हैं। जब भी घर जाओ तो छाती फुलाकर बेटे से 'बा - बा ब्लैक शीप' कविता का पाठ करवा देते हैं। मालुम होता है अँगरेज़ अपनी विरासत में से कुछ हिस्सा इनके नाम लिख गए हों! वैसे बात हो सही ही है - अंग्रेज़ी का बोलबाला है। कहीं कुछ काम नही होता इसके बिना।

लेकिन अंग्रेज़ी स्कूल की मोटी फीस का इंतज़ाम कहाँ से हो? यूँ ही तंगहाल हैं अब ये नए शोशे ! मगर शर्मा जी के उस गर्व भरे अट्ठाहस के सामने सब तर्क विफल थे। इस महंगाई के ज़माने में सरकारी नौकरी से क्या होता है - अब बोनस मिलने के बाद ही कुछ इंतज़ाम भी हो पायेगा। और हाँ, लालाजी को कहकर घर की छत भी सुधारवानी है। पिछली बरसात खत्म होने पर ही चूने लगी थी - और दीवारों की सीलन हो महीने भर बाद भी न गई थी। न जाने कब अपने घर में रहना नसीब होगा?

अचानक ट्रेन के झटके ने तंद्रा भंग की। ट्रेन की गति कम होती जा रही थी। दूर धुंधला सा भोपाल स्टेशन दिखाई पड़ रहा था। धूप भी कुछ मंद पड़ चुकी थी। खिड़कियाँ खोली गई - ताज़ी बयार ने पसीने से कुछ राहत दी। ढीली सी गति से होते हुए ट्रेन प्लेटफार्म पर जा लगी। खिड़की से बाहर झाँका तो सामने खड़ा राजू दिखाई दिया। झटपट आकर आम की दो बोरियां, सूटकेस और बैग ट्रेन से बाहर लाद दिए। फ़िर पैर छुए और गले मिला। पीछे और भी लोग इंतजार कर रहे थे। घर पहुँच कर सब पंखे के नीचे लधर गए। फ़िर बर्फ का ठंडा पानी मिला तो जान में जान आई। चारों और सब लोग खुश थे। छोटू नानी की गोद में खेलते हुए नई गेंद को सराह रहा था।

एक झोंके से सारा पसीना छू हो चुका था!

चित्र साभार: विकीमिडिया कॉमनस

रविवार, अप्रैल 27, 2008

ड्रामा - ऐ - IPL!

आजकल IPL काफ़ी शोरगुल मचा रहा है। इतना शोर कि उसकी गूँज सदन में भी सुनाई दे रही है। अमरीकन नचइये के भड़कीले कपडों को लेकर बवाल मचा हुआ है। आख़िर वह कैसे इतने छुटले कपड़े पहन कर नाच सकती हैं? यह तो अन्याय है - अब हमारे बौलीवुड की अभिनेत्रियों का क्या होगा? आख़िर कुछ दिन पहले ही करीना ने टशन में आकर इतना "वेट लूज" किया है! और ये फिरंगी लौंडियाँ बीच में आकर हमारी राखी सावन्तों के पेट पे लात मार रही हैं!

और ये क्या - लो जी श्रीसंत तो रो पड़े! आख़िर हुआ क्या ? भज्जी ने चमाट रसीद कर दिखा दिया कि पंजाब की टीम में न होने से कुछ नही होता - असली पंजाब के पुत्तर वही हैं। अब या तो श्रीसंत ने भी मर्द बनकर भज्जी को चम्टिया देना था या फ़िर चुपचाप सहन कर लेना चाहिए था। मगर पहले तो १०,००० लोगों के सामने प्रसाद पाया और फ़िर करोड़ों के सामने रो पड़े। अब हिंदुस्तान की टीम ऑस्ट्रेलिया जायेगी तो क्या कहेंगे वह लोग ?




वैसे विश्वसनीय सूत्रों का यह कहना है कि प्रीटी जिंटा से "जप्पी" न प्राप्त होने की वजह से वह रो पड़े। अब ये हाल अपनी "यंगिस्तान" की जेनरेशन के आइकन का है तो फ़िर हो गया कल्याण !

खैर, मैं तहे दिल से आभारी हूँ IPL का - मनोरंजन भरे ड्रामे के लिए! अगला "मैच" भज्जी और शोएब के बीच में होना चाहिए। वैसे साइमंड्स भी इशांत शर्मा के साथ बौक्सिंग मैच का इरादा जता चुके हैं - तो हो जाए SETMAX पे इन्टरटेन्मेन्ट अनलिमिटेड!

सोमवार, अप्रैल 21, 2008

हाउ टू बी अ सोशियालायिट

Socialite - A socialite is a person (male or female, but more often used for a woman) of social prominence who spends significant resources entertaining and being entertained but is not (at least in the early 20th century heyday of socialites) a professional entertainer. A socialite is usually a member of the upper class or aristocracy with their social movements categorized in high-society magazines. - from Wikipedia.

मुझे पब्लिक ने कहा कि मैं सोशियल नहीं हूँ (इसका मतलब एंटी - सोशियल से न जोडा जाए )। घर पे गया तो पिताजी बोले ,"बेटा कुछ सोशियल बनो" - । "मुझे सोशियालिस्म से कुछ ख़ास लगाव नही है"- मैंने ऐसा टंग-इन-चीक कमेन्ट दिया तो वह आँखे दिखाने लगे। अब पिताजी को निबटा के साँस भरी ही थी कि फ्रेंड्स ने बिगुल बजा दिया - "अबे कैसा है तू ?", मैंने कहा, "मैं ऐसा ही हूँ"। काफ़ी समय तक उनको इग्नोर करने के आजकल मैं सोशियल बनने की कोशिश कर रहा हूँ।

वैसे सोशियलायिट होना भी एक कला ही है। इसके निदान के लिए "लाख दुखों की एक दवा" विकिपेडिया पर खोजा गया तो पता चला कि इसके लिए कुछ स्टेप्स हैं।

1. अच्छा नाम होना चाहिए। जैसे तारापोरवाला , सिंघानिया, मल्होत्रा, गोदरेज आदि अनादी। ज्यादा चूल हो तो क-अक्षरधारी किसी भी प्रदूषित धारावाहिक का अवलोकन किया जा सकता है - मगर अपने रिस्क पे। अब "लल्लन पाण्डेय" जैसे चिरकुटिया नाम का प्रयोग तो बिल्कुल ही अनफ़ैशनेबल है - अपने पैर पर कुल्हाडी मारने जैसा। हाँ, मिसेज पूनावाला एकदम "इन" नाम है।
2. लूक्स ऐसी हों कि लगे मानों राजघराने के वारिस आज अनाथालय में बक्शीश देने आए हों। यह न हो कि नाम हो लिल्लेटे दुबे और शकल हो हैदराबाद के लाद बाजार में चूडियाँ बेचने वाले सारखी।
3. आपका ग्रेजुएशन सही सब्जेक्ट से हो - जैसे इंग्लिश या फ्रेंच लिटरेचर , रोमन कला और साहित्य, साइकोलोजी या इकोनोमिक्स। हिन्दी साहित्य या राजनीती विज्ञान जैसे आत्मघाती शब्दों का प्रयोग तो कतई न करें। देहरादून या नैनीताल के बोर्डिंग स्कूलों में बचपन निकला हो तो सोने पे सुहागा!
4. आप कई सारे ट्रस्ट या कमिटी के सदस्य हों तो अच्छा होगा। हॉस्पिटल, चेरिटी, समाज के निम्न (गिरे हुए) वर्गों से संबंधित कुछ मिल जाए तो इमोशन का तड़का भी आ जाए। वैसे आजकल HIV - AIDS का बाज़ार भी काफ़ी गरम है।पूजनीय श्रीमती राधा बाई गंगवाल धर्मशाला का जिक्र नुकसानदायक हो सकता है।
5. शौक ऐसे पालें मानो नवाब के जाने हों! गोल्फ, पोलो,टेनिस, हौर्स रायडिंग, फार्मूला वन जैसे खेलो में रूचि रखें।गोल्फ क्लब की सदस्यता लें - किरकिट, हॉकी, कब्बडी जैसे सड़कछाप खेलों से दूर ही रहे। हाँ, IPL में रूचि दिखा सकते हैं।


6. गाल को चूमना सीखें - मगर भडैत तरीके से नहीं - बस हवा में एक किस। लंबा वाला सेशन पार्टी के बाद कार में पूरा कर सकते हैं।
7. होटल में समय बिताएं। एक रात के लिए कमरा लेकर दोस्तों को पार्टी पर बुलाएं - कह सकते हैं कि घर पे आप "बोर" हो गए थे - या फ़िर "यू नीडेड अ ब्रेक"। उपरोक्त उपाय प्रायतः काफी सफल पाया गया है।
8. चमकने वाले कपड़े पहने, जितनी चमक उतना असर ! लंदन और फ्रांस का लेबल हो तो बात बन जाए।
9. चेहरे पे सदा एक मुस्कान बनी रही - कैटरिना कैफ जैसी -(कमबख्त हर सीन में एक ही चेहरा ले के आ जातीहै)। एकदम ग्रेसफुल और नॉन-चलेंट रहें - दीन दुनिया से अविचलित। भले ही आपके सामने अभिषेक बच्चन खड़ा हो - यूं बिहेव करें कि मानों आपके लिए ये रोज की बात हो!
10. एंड लास्ट बात नेवर द लीस्ट - बात करने का लहजा सीखें। "यू लुक बियुटिफुल/गोर्जियस " के बजाय " यूलुक डिवायिन / डिवास्टेटिन्ग " बेहतर है। आप जो भी कहें वह एक्साइटिन्ग होना चाहिए - आम घरेलु काम को सजा -धजाकर बताएं।

अब मुझ जैसे देहाती - अनरिफ़ाइन्ड का न जाने क्या होगा मगर आप ही शायद इन तरीकों से लाभ उठा पाएं - इसी से मेरा लेख सार्थक हो जाएगा।

नोट - आज के इस भाषाई डायरिया के लिए क्षमाप्रार्थी हूँमगर क्या करूँ एक प्रोस्पेक्टिव सोशियालायिट को इसी भाषा का प्रयोग मान्य है!

शनिवार, फ़रवरी 16, 2008

फ्रांस की वाईन और बंगलादेश के मच्छर

ग्लोबल वार्मिंग वाले काफ़ी समय से चिल्ल पो मचा रहे हैं - इस बार शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिलने से उनके प्रयासों को बढावा भी मिला है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति अल गोर २०० का चुनाव हारने का गम ग्लोबल वार्मिंग के जरिये भुला रहे हैं। अमरीका और यूरोप के देशों में तो यह काफ़ी संवेदनशील मामला है। जहाँ भारत, रूस, कनाडा, यूरोपियन यूनियन और हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने क्योटो प्रोटोकॉल को प्रमाणित किया है वहीं सबसे बड़े दोषी अमरीका, चीन और जापान की इस मामले में बहुत भद्द पिटी है।

वैज्ञानिक कहते हैं की ग्लोबल वार्मिंग के वजह से कैटरिना जैसे तूफानों की संख्या में कमी आएगी (ध्रुवों और भूमध्य रेखा के तापमान का अन्तर कम होने के कारण), तो कुछ कहते हैं बढ़ जायेगी। कुल मिलकर मामला थोड़ा पेचीदा है।


इंसान टेक्नोलॉजी रुपी भस्मासुरी वरदान लेकर विचलित है, इधर उधर भटक रहा है किसी को भस्म करने के लिए - कभी शेरों को, कभी जंगलो को, कभी ग्लेशियर-समुद्रों को तो कभी ख़ुद की जड़ें काटने पे उतारू है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत और बंगलादेश के मच्छर और पिस्सू उड़कर यूरोप के देशों में पहुँच जायेंगे - इसी बहाने मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों पर से तीसरी दुनिया का एकाधिकार भी निकल जाएगा। साथ ही यूरोप के देशों की बर्फ पिघलकर बंगलादेश के तट को डूबा देगी - मानो बदला लेने के लिए! पोलर भालू ध्रुवों से जमीन की तरफ़ बढ़ रहे हैं तो शार्क और केकडे अंटार्टिका पर हमले को तयार हैं



फ्रांस में गर्मी के कारण अंगूर की फसल दस दिन पहले पक रही है। ऐसे अंगूरों में चीनी की मात्रा और P. H. लेवल दोनों बढ़ने के कारण फ्रांस की मशहूर वाईन का स्वाद भी बदल सकता है। यह भी हो सकता है की फ्रांस की वाईन अब ब्रिटेन में उगाई जाए !

बुधवार, फ़रवरी 13, 2008

भइया लोगों के लिए कुछ सबक

आजकल महाराष्ट्र में 'महाराष्ट्रियता' के नाम पर जो भी हो रहा है - या हुआ है उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है। खैर, इस मामले में बहुत कुछ कहा और लिखा जा रहा है मीडिया में - सो मैं और कुछ गढ़ना नही चाहता। इसके पीछे की सच्चाई तो यह है। वैसे "डेमोक्रेजी" में यह सब तो होता रहता है। भारतीयों का 'भारत निकाला' हो रहा है - वह भी पूरे प्रचार-प्रसार के साथ। कोई भले ही कुछ कहे, सच यह है की इस सब के पीछे कई मराठी 'मानुसों' का मूक समर्थन भी है। वही सब कहा जा रहा है जो जनता सुनना चाहती है। बस किरदार और जगह बदली हैं - कभी राज - कभी बाल, कभी महाराष्ट्र - कभी कश्मीर तो कभी गुजरात, कभी तसलीमा तो कभी हुसैन। आख़िर जनता का राज जो है!


सबको आरक्षण चाहिए - गूर्जर को और मीणा को, ईसाई को और मुस्लिम को, पिछडों को और सवर्णों को, तो महाराष्ट्र के मराठी क्यों चुप रहें? उनकी तो यह जन्मभूमि है। वह तो फ़िर भी राज ठाकरे हैं, सोचिये अगर महाराष्ट्र की जगह बिहार / यूपी हो - तो लालू और मायावती गैर 'भइया' लोगों का क्या हाल करें ! दुनिया भर में बिहारियत का दंभ भरने वाले लालू आज चुप हैं, हाँ बीच - बीच में कुछ बडबडाकर अपनी असहमति जरुर जाहिर कर देते हैं। "दलित की बेटी" मायावती भी चुप हैं - भले ही इस "महाराष्ट्रियता" का प्रहार सबसे अधिक इसी तबके पर है। चुप हैं हमारे राष्ट्रीय नेता आडवाणी और अटल, सोनिया जी तो आजकल 'ओवर एक्सेर्शन' की शिकार हैं, और वामपंथी बंगाल और केरल के बाहर की राजनीति में ज्यादा कुछ दिलचस्पी नही रखते हैं।

इनसे सबक
उपरोक्त बातों से आप समझ ही गए होंगे - यह सब होता आ रहा है और होता रहेगा। सरकार से ज्यादा उम्मीद न रखें - जब तक कि आप कुछ ख़ास वोट बैंक के हिस्से न हों। इस ख़बर के अनुसार सिर्फ़ नासिक शहर से १०,००० उत्तर भारतीय अपने घरों की ओर प्रस्थान कर चुके हैं। प्रशिक्षित कामगारों की कमी की वजह से अभी तक व्यवसाय जगत को ५००-७०० करोड़ का नुकसान हो चुका है। ४० प्रतिशत छोटे और मध्यम वर्ग के उद्योग बंद हो चुके हैं। असंगठित मजदूरों और फड - ठेलो के जाने का नुकसान लगना थोड़ा मुश्किल है। अब इस सब नुकसान का भार महाराष्ट्र की जनता उठा पायेगी या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा।

सिर्फ़ निम्न वर्ग के लोगों पर हो रहे इन हमलों से डेमोक्रेजी का एक सच जाहिर हुआ कि "गिरे हुए को सभी लात मारते हैं"। क्या राज ठाकरे की हिम्मत यह सब कुछ आईटी इंडस्ट्री से जुड़े भइया लोगों के साथ करने की हिम्मत है - नहीं। तो पढो लिखो- जागरूक बनो, शिक्षा ही सबसे बड़ा हथियार है


अब समय आ गया है कि अपने घरों की तरफ़ लौटने वाले इन लोगों को अपनी राज्य सरकारों से सवाल करना होगा कि यह उद्योग धंधे क्यों नहीं उनके घर के नजदीक शुरू किए जाते। राज्य सरकारों के हाथ भी एक सुनहरा मौका लगा है - आज के समय में प्रशिक्षित कामगार एक महत्वपूर्ण जरूरत है। जो लोग पंजाब की भूमि में फसलें लहरा सकते हैं, मुम्बई में फल बेच सकते हैं, नासिक की फ़ैक्ट्रियों में अपना खून पसीना बहा सकते हैं वो अपने घर आकर क्या नही कर सकते तो क्यों न उत्तर भारत में उद्योग शुरू करके इन दुधारू गायों को दुहा जाए ? जिसे कहते हैं कि "Maharashtra's loss is Bihar's gain"। बाकी अपनी किस्मत अपने हाथ।

शनिवार, जनवरी 26, 2008

एक हिन्दी चिठ्ठे का पुनर्जनम !

मुझ जैसे नौसिखिये के लिए हिन्दी भाषा में चिठ्ठा लिखना बहुत मेहनत का काम है। इससे पहले कि आप धिक्कार वचन दे - हाँ मैं मानता हूँ कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और हिन्दी में लिखना मेरे लिए बायें हाथ का खेल होना चाहिए। मगर आप समझने की कोशिश करें उस पीढ़ी की मानसिकता को जिसका मैं एक हिस्सा हूँ - उस मानसिक दशा को - जिसमे मैं वर्तमान में जी रहा हूँ। स्थिति यह है कि आप अंग्रेज़ी में सोचने पर मजबूर हो जाते हैं। और यकीन मानें कि यह मेरा हिन्दी प्रेम ही है जो मैं इस चिठ्ठे पर आज उपस्थित हूँ।

आज की "अर्बन" पीढ़ी में पले-बढे एक नौजवान के लिए हिन्दी में सोचना अत्यन्त कठिन है। क्या आपको यह सीडी पसंद है ? - "येस्, आई वुड लाइक टू बाई इट", आज के मैच के क्या हाल हैं ? - "ओह, इट वाज़ डल डे!" क्या आपको चिठ्ठाकारी पसंद है ? - "येस्, आई लव रीडिंग ऎंड राइटिंग इन एनी फॉर्म ऎंड ब्लोग्गिंग इस सर्टन्ली नो एक्स्सेप्शन"। आप कुछ भी सवाल पूछे - जवाब अंग्रेज़ी में ही मिलेगा। क्यों ??? अरे भाई यह विचार प्रकम जो अंग्रेज़ी से शुरू होता है!


मालूम नही आखिरी हिन्दी फ़िल्म कौनसी देखी थी - हाँ मगर कल रात को "युज़वल सस्पेक्ट" देखी थी - यह जरूर याद है! हिन्दी अखबार नज़र किए हुए अरसा हो चुका है - हाँ टाइम्स ऑफ़ इंडिया रोज पढ़ते हैं। स्कूल में सी. बी. एस. ई. माध्यम से पढ़ाई की तो स्पीड का पता है मगर गति का नही। अभियांत्रिकी महाविद्यालय में भी सिर्फ़ "इंजीनियरिंग" पढी। अब दफ्तर में तो अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है। "आल दी इश्युस शुड बी सोल्व्ड ऑन अ प्रायोरिटी बेसिस" - बॉस ने बोला येस् तो मतलब येस् !

चहुँ ओर अंग्रेजी की मार सहकर हम लुटे पिटे चले आते हैं एक हिन्दी के चिठ्ठे पे लिखने के लिए। उसमें भी पहले तो हिन्दी में कुछ सोच नही पैदा होते, और जो पैदा होते हैं उनकी अभिव्यक्ति के लिए वाक्यांश नहीं मिलते !

वैसे हालात हमेशा इतने बुरे नहीं थे। मैंने हिन्दी में चिठ्ठाकारी शुरू की थी १६ नवंबर २००७ को। फिर १९ नवंबर २००७ तक ८ चिठ्ठे जोड़ चुका था। मगर बीच में कुछ अपरिहार्य कारणों की वजह से चिठ्ठाकारी की दुकान बंद करनी पड़ी। अब इस साल फिर से शुरुआत कर रहा हूँ। मगर हिन्दी 'मोड" से बाहर आने और अभ्यास छुटने के कारण अब लिखना मुश्किल है। फिर से एक -एक करके पाठक जुटाने पड़ेंगे, फिर से धाक जमानी पड़ेगी, साथी चिठ्ठाकारों से फिर से मेलजोल बढ़ाना पढेगा (शायद भूल ही चुके हों) - फिर से सब कुछ ! उफ़...

मगर मन में आशा है - कि आप सब सुधिजनो के सहयोग से मैं दोबारा अपने पैरों पर खड़ा हो पाउँगा। क्यों नहीं आख़िर उम्मीद पर दुनिया टिकी है!

शनिवार, जनवरी 12, 2008

एक सुबह टीवी के साथ ...

कुछ दिन पहले की ही बात है, ठीक तारीख तो याद नहीं मगर वह बेमतलब है। कुछ औसत सा ही दिन था। सूरज आज भी पश्चिम से उगा था। मगर कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। अरे हाँ, इतनी शांति जो थी ! सुबह - सुबह नरकपालिका वाले आकर गली के सारे कुत्तों को गाड़ी में उठा कर ले गए थे। तभी मकान मालिक ने दरवाज़े पे दस्तक देकर किराये की फरमाईश कर दी। उसको निपटाते ही केबल, अखबार और इंटरनेट का बिल लेने वाले भी आ धमके। काम वाली बाई ने भी मौका देखते ही बहती गंगा में हाथ धो लिए। अपने आप को इतने सारे लोगों के प्रति कर्ज़दार पाकर मैं अपराध भाव से ग्रस्त हो चुका था।

वह ऐसा ही एक दिन था इन सब की मार से त्रस्त मैं आंखें फाड़ के टीवी के सामने बैठा था। पहले कतार से न्यूज़ चैनलों ने अपने दर्शन दिए। हर चैनल हमें वक़्त से भी तेज चलने की सलाह दे रह था। अब यह बताना फिजूल है की यह निर्वाण सिर्फ उनके चैनल के साथ ही संभव था।


पिछले पखवाडे में काफी कुछ घट चुका था। मोदित्व की गुजरात विजय, बेनजीर की सनसनीखेज हत्या, गोवा में सेज , राखी सावंत का नाच, सिडनी का मंकी - क्रिकेट वगैरह - वगैरह। कहने का सार यह की आज न्यूज़ चैनलों के पास ख़बरों की कमी न थी।

आज स्टार न्यूज़ , आजतक और इंडिया टीवी के बीच में बेहूदा खबरों को ब्रेकिंग न्यूज़ बनने की होड़ न थी। यहाँ तक कि देर रात को टीवी सेट पर आकर अंगुली लहराते हुए एक दढियल सज्जन भी आज गुम थे !


किसी तरह इन सुब को निबटा के हम आगे बढे तो कुछ "घरेलु" चैनलों ने अपना रोना मचाया हुआ था। गृह कलेश, षड्यंत्र, छल - कपट, पर स्त्रीगमन, घरेलु ईर्ष्या जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस चल रही थी। भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने का दंभ भरते हुए कुछ स्त्रियाँ नौ गज की साड़ी ,भारी शृंगार, ऊँची संडल, छोटे ब्लाउज़ और ग्लिसरीन उत्पत्त अश्रु नेत्रों में ग्रहण किये हुए एक जज्बाती बहस में मशगूल थी। करोडों की बात तो यूं चल रही थी मानों सभी नवाब की जनी रिक्त हुंडी हाथ में लेकर पैदा हुई हों।


खैर आगे बढ़ते ही बाबा रामदेव ने न जाने किस इश्वर उत्पत्त आसन का प्रदर्शन करके अपने पेट की सारी अंतडियो के अप्रत्यक्ष दर्शन करा दिए। देखकर मानों क्यों दिल में मचली सी होने लगी। कुछ अन्य महानुभाव भी इश्वर भक्ति में लिप्त हों - इस संदर्भ में हमें कुछ उपदेश देने के लिए अपना गला खंखार रहे थे कि हम सटक लिए।

आगे के कुछ चैनल हमारे लिए बधिरों की श्रेणी से हैं। इन राहू केतु चैनलों की संख्या २०-२५ के बीच में है जो कि असाधारण रुप से बढ़ सकती है यदि आप दक्षिणी भारत की तरफ प्रस्थान करें। इन चैनलों पर भरमार है पारदर्शी साडी पहने हुई मांसल अभिनेत्रियों और हजारी के फूलों की क्यारी की तरह होंठों से सटी हुई मूछें धारण किये हुए तोंदले अभिनेताओं की। ऐसे महामानव जिनके लिए चित्रकथाओं के नायक की भांति कुछ भी असंभव नही ! चाहे एक हाथ से ट्रेन को रोकना हो, या फिर अंगुली से दीवार में कील ठोकना या फिर बंदूक से निकली हुई गोली को ब्लेड कि सहायता से दो भागों में विभाजित करना।

इन सब चैनलों को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मान हमने एक लंबी छलांग लगाई, धरती पर कदम रखते ही पाया कि दो अति हृष्ट पृष्ट पुरुष एक दुसरे को उठा कर पटक रहे हैं। तभी काले लंगोट वाले ने एक कुर्सी उठा के दुसरे के सिर पे दे मारी । यह देख रिंग के बाहर खड़ी उसकी महिला सह्भागिनी ने नकटी शूर्पनखा की भाँती चीत्कार करते हुए रिंग के अन्दर छलांग लगाई।

यह सब खून खराबा पीछे छोड़ हम डिस्कवरी के गुच्छे पर आ लटके। और बाक़ी पूरा दिन हमने ग्लोबल वार्मिंग से मोजाम्बिक के पर्यावरण पर हो रहे दुष्प्रभाव का अवलोकन करते हुए बिताया।