रविवार, नवंबर 18, 2007

दिल्ली की दारु और कोल्हापुर की मर्सीडीज़

बतंगड जी लिखते हैं कि पिछले वर्ष दिल्लीवाले ७८,००० बोतल शराब पी गए ( बोतल के आकार/क्षमता के बारे में उन्होने कुछ नहीं कहा )। साथ ही १६ लाख नयी कारें भी खरीदी गयीं। कुल मिलाकर दिल्लीवासियों की औसत कमाई सालाना ६१,६७६ हो गयी है जो गोवा के बाद देशभर में सबसे ऊपर है। उनकी भाषा में से समाजवाद की बू आती है। आख़िर इस सब में गलत क्या है - चिंता की बात तो तब होती जब लोग खाने के लिए चोरी करने लगें!


महाराष्ट्र में मुम्बई के बाद सबसे ज्यादा मर्सीडीज़ कहाँ पायी जाती हैं बताइए जरा ? ज्यादा सिर मत खुजाइये मैं बताता हूँ - कोल्हापुर। गन्ना,धातु - खनन और कपडा उद्योग से कमाई हुई दौलत के दम पर ये छोटा शहर आज भारत मैं औसत सालाना कमाई की सोपान पर काफी ऊपर है। अब पैसा है तो शौक भी -चाहे दारू पियें या मर्सीडीज़ खरीदें - किसी को फिक्र है क्या ? कम से कम कोल्हापुर वासियों को तो नहीं! आख़िर हम कब अपनी इस भौतिकतावाद विरोधी मानसिकता से बाहर निकलेंगे ?

7 टिप्‍पणियां:

  1. कोल्हापुर के मेरे केवल दो दोस्त हैं - और एक की कपड़ा मिल थी, दूसरे के पास रोड रोलर - जो वह भाड़े पर देता था।
    वास्तव में समृद्धि लाना हमारे हाथ में ही है, मौके सबके पास हैं। आर्थिक समृद्धि को चारित्रिक और आत्मिक समृद्धि से अलग रखने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि गरीबी ही सबसे अधिक अपराध कराती है। हमारे देश में चिरकाल से सब प्रकार की समृद्धि की कामना एक साथ ही की जाती है क्योंकि वास्तव में वे एक दूसरे से जुड़ी ही हैं।

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  2. अरे, लगता है यह लेख मैने लिखा हो!

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  3. सही बात है पैसा है तो शौक भी है, पैसा नही तो जिंदगी जीने की चिंता

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  4. सौरभ जी
    एक तो ये कि मैं समाजवादी नहीं हूं। समाजवाद शब्द ने देश की तरक्की के रास्ते में बड़े-बड़े ब्रेकर लगाए हैं। पैसा, कार और दारू के पीछे भागने की दिल्ली की आदत बताने के पीछे मेरा मंशा सिर्फ इतनी ही है कि समृद्धि के साथ संतुलन बना रहे तो अच्छा।

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  5. समाजवाद से आपने अपना पल्ला जिस गति से झाडा वह देख कर बहुत खुशी हुई. :)
    समाजवादियों, कम्युनिस्टों/ वामपंथियों से अपना ३६ का आंकडा है . अब रही बात समृधि के साथ संतुलन बनाने की तो यही कहूँगा कि "यह डगर बहुत कठिन है भैय्या!"

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  6. सही कहा भाई साहब आपने
    संमृद्धि का विरोध कोई नहीं करता। लेकिन यह समाज को असंतुलित करने वाला नहीं होना चाहिए। नीतियां यही हैं कि देशके तमाम इलाके रोटी के लिए तरस रहे हैं, कुछ एक में मर्सिडीज चल रही हैं। अगर रोटी के लिए मोहताज आदमी को यह लग गया कि इसकी मर्सिडीज, हमारे जैसे हजारों की रोटी से तैयार हुई है, तो हालत बुरी हो जाती है।

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