गुरुवार, सितंबर 19, 2013

हज - क़िस्त २

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हज - क़िस्त १

काफी समय से फ़ारुख़ के ज़हन में एक ख्याल जड़ कर रहा था। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि मरने से पहले एक बार जरूर हज कर लें। अपनी बीवी से अक्सर कहा करते थे, " रुखसाना, इस जहाँ की तो कर ली अब उस जहाँ की देखी जाये!"। रुखसाना घर के हालत से तो वाकिफ़ थी मगर अपने शौहर की हाँ में हाँ मिला गहरी साँस भर लेती थी।

गुरब़त में जिंदगी गुज़ार अब फ़ारुख़ अपने ख्व़ाब को पूरा करने के करीब थे। तिल तिल कर उन्होंने इतने सालों से कुछ पैसे जमा किये थे और जो मंसूबे बनाये थे उन्हें अमली जामा पहनाना का वक़्त नज़दीक आ रहा था।

अब शब भर वे आँखे खोल कर छत को ताड़ते थे। कभी नींद टूटती तो खुद तो पाक काब़ा के चक्कर काटते हुए पाते। हर समय यही सोचते रहते कि कब वहाँ जाना नसीब होगा और वहां जाकर वे क्या करेंगे। रुखसाना से जिक्र करते तो वह झड़प कर कहती - जितनी लम्बी चादर हो उतने ही पैर फ़ैलाने चाहिए। फ़ारुख़ अन्दर ही अन्दर मुस्कुराते और पलट कर सो जाते।


फिर एक दिन अन्धौरी में टेम्पो चलाने वाले उनके पड़ोसी पाशा ने बताया कि सरकार हज यात्रा के लिए दरख्वास्त क़ुबूल कर रही है। बस फ़िर क्या था, फ़ारुख़ ने दुकान पर मंज़ूर को बैठाया और निकल पड़े। अर्जी लेकर शाम को घर पहुंचे तो सबके सामने अपने इरादों को ज़ाहिर किया। मान मनुव्वल के बाद सब राज़ी ख़ुशी हुए कि अब्बा और अम्मी हज पर जा रहे हैं। फ़ारुख़ खुदपरस्त इंसान थे और उन्हें इस बात का गुरूर था कि वे सरकार की दी हुई खैरात का इस्तमाल नहीं कर रहे थे।

शाम के अँधेरे में फ़ारुख़ ने सारे पैसे निकाल कर जोड़े - पूरे २ लाख थे। उनका और रुखसाना का हज का खर्च उठाने के लिए काफ़ी था। बस अब कल सुबह अर्जी सरकारी दफ्तर में जमा करना बाकी था। आने वाली सुबह का ख्वाब आँखों में सजाये,आज बहुत दिन बाद फ़ारुख़ चैन की नींद सोये थे।

आगे जारी …

चित्र साभार - मुहम्मद मेहदी करीम 

1 टिप्पणी:

  1. ऐसे पार्ट्स मैं लिख कर तरसा रहे हैं आप सौरभजी। अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा

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