मंगलवार, नवंबर 23, 2010

राम और रावण

पूर्वाग्रह मेरे चिंतन में सदा ही शामिल रहा है। न जाने क्यों मगर मैं सदा ही उससे मुग्ध रहा हूँ। मेरी कई प्रविष्टियाँ भी इस प्रसंग पर आधारित हैं। शायद इसलिए कि मेरा मन स्वयं पूर्वाग्रही हो! फ्रोय्डियन विश्लेषण भी इसी तरफ संकेत करता है - अवचेतन मन के विचार लेखनी में उतर आये हैं।

शायद वजह मेरे एक छोटे शहर से आकर एक महानगरीय संस्कृति में सम्मिलित होने की झिझक है। घर से निकलते हुए माता पिता ने कुछ ज्यादा ही मोटे रस्से पैरों में बाँध दिए थे। ये करना - वो नहीं, यहाँ जाना - वहां नहीं, इससे नहीं मिलना, चीज़ें संभल कर रखना वगैरह वगैरह। किसी दूसरे को देख कर पहले से विचार बना लेना, एक आलोचनात्मक रुख अपना लेना यह शायद उन्ही सीखों की देन है। शायद।

मगर क्या यह आचरण उन कुछ निर्धारक संलक्षणों में से नहीं है जो सिर्फ एक मानव का वैशिष्ठ्य है? आखिर सिक्के के दो पहलू ही तो हैं ये - अच्छाई और बुराई। आदि काल से मानव इतिहास पर नजर डालेंगे तो कई उदहारण मिल जायेंगे आपको। फिर मैं क्यों स्पष्टीकरण दूं अपने व्यवहार का?


२००५ में हॉलीवुड में एक फिल्म रिलीज़ हुई थी - Crash। यह फिल्म अमरीका में फैले सामाजिक,जातीय और रंगभेदीय संघर्षों के बारे में है। फिल्म में कई कहानियां सामानांतर चलती हैं जो कहीं न कहीं एक दूसरे से जुडी हुई हैं। कहानी के पात्र गोरे, काले, एशियन, लातिन अमरीकी और ईरानी हैं। मानसिक अंतर्द्वंदों से गुंथी हुई कहानी है ये। एक दूसरे के प्रति पूर्वधारणाओं और कुछ हद तक अज्ञान से उपजे अविश्वास की कहानी।

यह कहानी हमारे देश के किसी भी हिस्से की हो सकती है। बस रंग की जगह वर्ण,गोत्र,भाषा या ने ले ली है। दक्षिण भारतीय लुंगी धारी 'मद्रासी', भांगड़ा की ताल पर नाचते हुए पटियाला पैग गटकता पंजाबी, दिल्ली के 'अर्बन घेटो' में रहने वाला चिंकी, मुंबई महानगर पालिका की दीवार पर गुटके की पिचकारी मारता भैय्या, साल्ट लेक की कॉफ़ी शॉप में बहस करता भद्रलोक, दिल्ली के हाईवे ढाबों पर बर्तन धोता मासूम पहाड़ी बच्चा, रागिनी गुनगुनाते हुए १०० का नोट जेब में ठूंसने वाला हरियाणा पुलिस का सिपाही, रायपुर में बच्चों के लिए मिटटी के खिलौने बेचने वाला कोल, पश्चिमी घाट के किलों पर चढ़कर 'जय भारत' से पहले 'जय महाराष्ट्र' का नारा लगाने वाला मराठी या साथ में रसोइया लेकर चार धाम के दर्शन को जाने वाला शाकाहारी गुजराती।

वही नजर दौड़ाता हूँ तो दिखते हैं कुछ और रूप। सिख जिन्होंने 'अमृत' चखा है, IIT के सूट बूट पहने तमिल प्रोफ़ेसर, गुडगाँव के कॉल सेंटर में काम करते हुए अपनी पहचान खोता मणिपुरी, ट्रैफिक रोककर एक बूढ़े को सड़क पार करवाता दिल्ली पुलिस का सिपाही, सीमा पर देश के लिए गोली खाता मराठी मेजर, नारायणपुर में जवानों का गला काटता कोल, अहमदाबाद में दंगे करता गुजराती, मुंबई के अंडर वर्ल्ड का शार्प शूटर बन बैठा एक मासूम पहाड़ी बच्चा।

कौन है राम और कौन रावण? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा - सर चकरा रहा है।

चित्र साभार : Francesco Marino

5 टिप्‍पणियां:

  1. राम और रावण को किसी भौतिक उपाधियों से जोड़ देना संभवतः उस सीमा का अतिक्रमण हो जायेगा जिनमें ये मानसिकतायें कार्यरत हैं। हर मनुष्य के अन्दर हैं यह दोनों। कहीं रावण जीतता रहता है, कहीं राम।

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  2. शानदार पोस्ट....विचारणीय .....जो इस समाज के भीतरी तानो बानो का दन्द दिखाती है .जो इक्कीसवी सदी के बाद अब भी है .....

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  3. @प्रवीण पाण्डेय जी -
    बिलकुल सही कहा आपने. आप Crash फिल्म देखिये (अगर नहीं देखी है तो) - यहाँ २ घंटों में राम को रावण और रावण को राम बनते हुए दर्शाया गया है :-)

    @अनुराग जी -
    उत्साह वर्धन करने के लिए धन्यवाद. आप सही कहते हैं यह द्वन्द आदि कल से २१ शताब्दी में भी चल रहा है और शायद चलता भी रहेगा.

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  4. रामायण युग में अच्छाई-बुराई का युद्ध एक भौगोलिक स्थल और दूसरे में था। महाभारत काल में यय कबीलों में सिमट गया। अब यह व्यक्ति में हो रहा है! :)

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  5. किसने कहा कि जीवन राम रावण की तरह, काला सफेद है, वह तो धूसर सा है, कभी कालिमा की ओर और कभी उजास भी.

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