शुक्रवार, जुलाई 30, 2010

पूर्वाग्रह (लघुकथा) - भाग १

वह लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ घर की ओर चला। गली के मोड़ पर रिक्शा छोड़ दिया था उसने। आगे संकरा रास्ता था - एक तरफ नहर और दूसरी तरफ झाड़ियाँ। घर जाकर आज कूलर का पम्प सही करवाना था। गर्मी बहुत थी और ऊपर से बिजली में कटौती। बार बार बिजली आने जाने और लो वोल्टेज की वजह से ही पम्प ख़राब हुआ होगा। बीवी के उलाहनों से तंग आ चुका था वो। एक हफ्ते से मोटर ख़राब है, आज तो मिस्त्री को बुलाना ही होगा।

दिनभर ऑफिस में ही घर से माँ के तीन फोन आ चुके थे। घुटने के जोड़ में फिर से दर्द उठ आया है - एक बार डॉक्टर को दिखवा लेते तो... बच्चों को सर्कस भी दिखाना था। ऊपर से ऑफिस में कम काम था भला? नए कॉन्ट्रेक्ट के लिए बॉस ने आज ही प्रोपोसल तैयार करने के लिए कहा था। दिन भर इसी उठा पटक में लगा रहा - देर होने की वजह से रिक्शा लिया।

रिक्शे में बैठने के कुछ देर बाद ही उसे कुछ अलग महसूस हुआ। रिक्शे वाला लगातार पैडल नहीं मार रहा था, एक पैडल मार सुस्ताने लगता - जब रिक्शा एकदम बंद होने को हो तो दूसरा पैडल। जैसे घोर अनिच्छा से ग्रसित हो। उसे अन्दर ही अन्दर झुंझलाहट होने लगी थी। एक तो पहले ही देर हो चुकी थी फिर ये ढीला रिक्शेवाला। जैसे हर सांस लेने से पहले अपने शरीर से याचना कर रहा हो - वैसे देखने में इतना कमजोर तो नहीं लगा रहा था। मतलब ठीक ठाक ही था। फिर पता नहीं ऐसे मरे हुए मन से क्यों रिक्शा चला रहा था। शायद इसकी जिंदगी में भी कोई परेशानी हो - गाँव में बीवी बच्चे, अनब्याही बहिन, आवारा भाई, बूढ़े माँ बाप...

अपनी स्थितियों में समानता जान एक स्वाभाविक संवेदना ने उसके मन में जन्म लिया। गरीब आदमी है बेचारा, न जाने क्या खाया होगा सुबह से,न जाने कितनी सवारियां मिली होंगी, पुलिस वाले भी परेशान करते हैं, ऊपर से रस्ते में थोड़ी चढ़ाई भी है। इन्ही विचारों में डूबा हुआ था कि रिक्शे वाले की आवाज़ आई, "पहुँच गए साहब! "

उसने जेब से दस का नोट निकाला और रिक्शे वाले को दे दिया। वैसे पांच ही रूपये होते थे मगर संवेदना ने विस्तार हो जगह बढ़ा ली थी।

जाते -जाते उसने पूछा, "क्यों भाई क्या हुआ, रिक्शा नहीं चला पा रहे हो, कोई तकलीफ है क्या?"

"नहीं साहब थोड़ा नशा है, सुबह 'सोना' लिया था",उत्तर मिला।

"सोना ? यह क्या है?"

वह झुंझलाया, "अरे साहब आप क्या बोलते हैं उसको?", उसने नहर के बगल में उग रही झाड़ियों की तरफ इशारा करके कहा।

उसने पहले बार गौर से रिक्शे वाले की ओर देखा। उसकी आँखें आधी बंद थी। वह उन्हें खुला रखने की बहुत कोशिश कर रहा था। रिक्शे वाला भंग के नशे में लिप्त था।

खुद को ऐसे घूरा जाते हुए देख रिक्शे वाला कुछ घबराया। नशे ने उसके चेहरे के सभी भावों को दबा दिया था। बस एक बेचैनी,जैसे जल्दी से यह बातचीत ख़त्म कर भाग जाना चाहता हो।

उसे अफ़सोस हुआ कि उसने रिक्शे वाले को ज्यादा पैसे दिए। समस्त ब्रह्माण्ड कृति और उसके प्राणियों के प्रति उसका मन दुराभावों से भर चुका था। मन में पिछले १० मिनट के इस वाकिये को दुहराता हुआ वह घर की ओर बढ़ा।

(आगे जारी है ...)

1 टिप्पणी:

तो कैसा लगी आपको यह रचना? आईये और कहिये...