यह नारा आजकल काफी गूँज रहा है। और क्यों नहीं ! गूंजना भी चाहिए - शेर हमारे राष्ट्रीय जीव हैं। अमरीकी ईगल (गंजा गिद्ध कहना सही न होगा) , चीनी पांडा, आस्ट्रेलियन कंगारू - ये मात्र जानवर नहीं एक राष्ट्र प्रतीक हैं।
शेर को लेकर कुछ ज्यादा ही हल्ला गुल्ला है। एयरसेल, एनडीटीवी और WWF ने मिलकर देश के बाकी बचे १४११ शेरों को बचाने का जिम्मा उठाया है। (वैसे उन्होंने सौरव गांगुली को न चुनकर गलती की अन्यथा इस संख्या में एक का इजाफा हो सकता था) उनकी वेबसाईट कहती है कि शेरों को बचाने के लिए आप बहुत कुछ कर सकते हैं - इन्टरनेट पर चिल्ल पों (ब्लॉग, ट्वीट, फेसबुक, यू ट्यूब आदि अनादी), WWF जैसी संस्थाओं को दान, शेरों के बारे में जागरूकता बढ़ाना वगैरह - वगैरह।
मगर इन सब से क्या कोई सीधा फर्क क्या पड़ेगा? शेरों को सबसे बड़ा खतरा है अवैध शिकार से। आखिर पोचर्स WWF से सलाह मशविरा और ट्विटर पर अपना स्टेटस अपडेट करके तो शिकार करने जायेंगे नहीं! काजीरंगा नेशनल पार्क में शेरों का घनत्व विश्व में सबसे अधिक है - 32.64 प्रति १०० वर्ग किमी। अभी हाल ही में चार पोचर्स को वहां मारा गया है।
शेरों के अंगों से बनी दवाइयों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है - खासकर चीन में। ९ खरब रूपये प्रति वर्ष का बाज़ार है ये। क्या इन अंगों को प्रयोगशाला में तैयार नहीं किया जा सकता? यह खबर देखिये, 2006 की है - वैज्ञानिकों ने लैब में इंसान का गुर्दा तैयार किया और यहाँ २०१० की इस खबर में लैब में तैयार हुए साजोसामान से खरगोशों ने अपनी वंश वृद्धि भी कर ली!
तो क्या गैंडे के सींग, हाथियों के दांत, चिड़ियों के पंख, शेरों की हड्डियाँ, खाल और पंजे प्रयोगशाला में तैयार करके बाजार में नहीं उतारे जा सकते?
Image Credits: Wikipedia
जब आदमी शेर को खायेंगे तो शेर कहाँ जायेंगे ।
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