आगे की सीट महिलाओं के लिए आरक्षित रहती हैं। आज बस में महिलाओं की संख्या कम थी इसलिए कुछ पुरूष इस मौके का फायदा उठा कर कब्जा जमाये बैठे थे। तभी बस में एक नवयुवती चढी - लम्बी-दुबली सी, सकुचाई नजरों से इधर उधर देखती हुई आगे बढ़ी। लगता था ९ से ५ का अपना दफ्तर का कोटा पूरा करके आई थी। बस दुबारा चले हुए पाँच मिनट हो चुके थे। अब लड़की की जान में जान आई। पिछले पाँच मिनट से वह आसपास के वातावरण से अभिज्ञ सर झुकाए खड़ी थी। अब उसके चेहरे के भाव कुछ संयत हुए - उसने सर उठा कर चारों ओर नज़रें घुमाई, कुछ महिला आरक्षित सीट पर पुरूष बैठे थे।
उसके संकोची मन में कई विचार उठे लगे, कुछ अनिर्णीत पलों के बाद वह आगे बढ़ी और उस सीट के पास जाकर खड़ी हो गई। उसे लगा कि सीधे कह देना उचित न होगा, वहां बैठे पुरूष उसके लिए स्वतः सीट खली कर देंगे।
५ बजे कई दफ्तरों में छुट्टी हो जाते है। दिन भर से सर खपा कर लोग सीधे अपने घर, अपने परिवार के पास जाना चाहते हैं। बड़े शहरों में किसी को एक दूसरे से कोई मतलब नही, सब अपनी धुन में मस्त रहते हैं। यह कोई छोटा-मोटा क़स्बा नही कि आप भोजन के पश्चात् एक चक्कर काटने निकले तो आठ-दस पहचान वालों से दुआ सलाम हो गई। यह महानगर है ! यहाँ अपने पड़ोसी का परिचय प्राप्त किए बिना ही जिंदगी निकल जाती है।
वहां बैठे हुए पुरूष भी इस '९-५' नस्ल की उत्पत्ति थे - एकदम मोटी खाल! इस बात को ताड़ गए, निर्लज भावः से जम्हाई भरते हुए खिड़की से बाहर हवा खाने लगे। पूरे बस में बैठे लोगों की निगाहें उस लड़की पर थी। लड़की का चेहरा लज्जा से लाल था। सर झुकाए, वह पेरों के अंगूठे से कुरेदने का असफल प्रयास करने लगी। मन में रह -रह कर विचार उठ जाते थी - हाय क्यों मैंने ऐसे अपनी भद्द करवाई!
(आगे जारी...)
चित्र साभार: http://www.cepolina.com/
यह सीन मैने भी देखा है - कई बार। पार्ट टू अलग अलग प्रकार का था जरूर!
जवाब देंहटाएंकरीब करीब ऐसी स्थिति मैनें झेली है, महिला सीट से उठने के लिए मैं बोलती रही और वह आदमी निर्लज्ज की तरह बैठा बातें बनाता रहा। अच्छा लिखा है आपने धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंशायद हर कोई इस तरह की स्थितियों से गुजर चुका है, अगली कड़ी का इन्तजार.
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