आजकल महाराष्ट्र में 'महाराष्ट्रियता' के नाम पर जो भी हो रहा है - या हुआ है उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है। खैर, इस मामले में बहुत कुछ कहा और लिखा जा रहा है मीडिया में - सो मैं और कुछ गढ़ना नही चाहता। इसके पीछे की सच्चाई तो यह है। वैसे "डेमोक्रेजी" में यह सब तो होता रहता है। भारतीयों का 'भारत निकाला' हो रहा है - वह भी पूरे प्रचार-प्रसार के साथ। कोई भले ही कुछ कहे, सच यह है की इस सब के पीछे कई मराठी 'मानुसों' का मूक समर्थन भी है। वही सब कहा जा रहा है जो जनता सुनना चाहती है। बस किरदार और जगह बदली हैं - कभी राज - कभी बाल, कभी महाराष्ट्र - कभी कश्मीर तो कभी गुजरात, कभी तसलीमा तो कभी हुसैन। आख़िर जनता का राज जो है!
सबको आरक्षण चाहिए - गूर्जर को और मीणा को, ईसाई को और मुस्लिम को, पिछडों को और सवर्णों को, तो महाराष्ट्र के मराठी क्यों चुप रहें? उनकी तो यह जन्मभूमि है। वह तो फ़िर भी राज ठाकरे हैं, सोचिये अगर महाराष्ट्र की जगह बिहार / यूपी हो - तो लालू और मायावती गैर 'भइया' लोगों का क्या हाल करें ! दुनिया भर में बिहारियत का दंभ भरने वाले लालू आज चुप हैं, हाँ बीच - बीच में कुछ बडबडाकर अपनी असहमति जरुर जाहिर कर देते हैं। "दलित की बेटी" मायावती भी चुप हैं - भले ही इस "महाराष्ट्रियता" का प्रहार सबसे अधिक इसी तबके पर है। चुप हैं हमारे राष्ट्रीय नेता आडवाणी और अटल, सोनिया जी तो आजकल 'ओवर एक्सेर्शन' की शिकार हैं, और वामपंथी बंगाल और केरल के बाहर की राजनीति में ज्यादा कुछ दिलचस्पी नही रखते हैं।
इनसे सबक
उपरोक्त बातों से आप समझ ही गए होंगे - यह सब होता आ रहा है और होता रहेगा। सरकार से ज्यादा उम्मीद न रखें - जब तक कि आप कुछ ख़ास वोट बैंक के हिस्से न हों। इस ख़बर के अनुसार सिर्फ़ नासिक शहर से १०,००० उत्तर भारतीय अपने घरों की ओर प्रस्थान कर चुके हैं। प्रशिक्षित कामगारों की कमी की वजह से अभी तक व्यवसाय जगत को ५००-७०० करोड़ का नुकसान हो चुका है। ४० प्रतिशत छोटे और मध्यम वर्ग के उद्योग बंद हो चुके हैं। असंगठित मजदूरों और फड - ठेलो के जाने का नुकसान लगना थोड़ा मुश्किल है। अब इस सब नुकसान का भार महाराष्ट्र की जनता उठा पायेगी या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा।
सिर्फ़ निम्न वर्ग के लोगों पर हो रहे इन हमलों से डेमोक्रेजी का एक सच जाहिर हुआ कि "गिरे हुए को सभी लात मारते हैं"। क्या राज ठाकरे की हिम्मत यह सब कुछ आईटी इंडस्ट्री से जुड़े भइया लोगों के साथ करने की हिम्मत है - नहीं। तो पढो लिखो- जागरूक बनो, शिक्षा ही सबसे बड़ा हथियार है।
अब समय आ गया है कि अपने घरों की तरफ़ लौटने वाले इन लोगों को अपनी राज्य सरकारों से सवाल करना होगा कि यह उद्योग धंधे क्यों नहीं उनके घर के नजदीक शुरू किए जाते। राज्य सरकारों के हाथ भी एक सुनहरा मौका लगा है - आज के समय में प्रशिक्षित कामगार एक महत्वपूर्ण जरूरत है। जो लोग पंजाब की भूमि में फसलें लहरा सकते हैं, मुम्बई में फल बेच सकते हैं, नासिक की फ़ैक्ट्रियों में अपना खून पसीना बहा सकते हैं वो अपने घर आकर क्या नही कर सकते। तो क्यों न उत्तर भारत में उद्योग शुरू करके इन दुधारू गायों को दुहा जाए ? जिसे कहते हैं कि "Maharashtra's loss is Bihar's gain"। बाकी अपनी किस्मत अपने हाथ।
शायद मुम्बई प्रकरण दोनो ओर के बड़बोले नेताओं का पंजा लड़ाऊ गेम है। वर्ना मुम्बई के मध्यवर्गीय मराठी को बीमारू प्रान्तों के सस्ते और मेहनती काम करने वालों की दरकार है। सही तरह से इस प्रकरण को निपटाया जाये और उत्तरभारतीय नेता वहां अपने पांव पसारने को आतुर न हों तो समस्या आसनी से सुलझ सकती है। तब राज ठाकरे को ज्यादा माइलेज नहीं मिलेगा।
जवाब देंहटाएंRaj T dosent care abt Marathis.
जवाब देंहटाएंbut he got what he wanted "free publicity"
Politicians are bloddy scoundrels.They suck
-rohit
आपके इस आलेख में परिपक्वता का परिचय दिया है। मैं आपकी जानकारी और विचारों से प्रभावित हूं। आप लिखते रहें। मेरी शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंदीपक भारतदीप