आज की "अर्बन" पीढ़ी में पले-बढे एक नौजवान के लिए हिन्दी में सोचना अत्यन्त कठिन है। क्या आपको यह सीडी पसंद है ? - "येस्, आई वुड लाइक टू बाई इट", आज के मैच के क्या हाल हैं ? - "ओह, इट वाज़ अ डल डे!" क्या आपको चिठ्ठाकारी पसंद है ? - "येस्, आई लव रीडिंग ऎंड राइटिंग इन एनी फॉर्म ऎंड ब्लोग्गिंग इस सर्टन्ली नो एक्स्सेप्शन"। आप कुछ भी सवाल पूछे - जवाब अंग्रेज़ी में ही मिलेगा। क्यों ??? अरे भाई यह विचार प्रकम जो अंग्रेज़ी से शुरू होता है!

मालूम नही आखिरी हिन्दी फ़िल्म कौनसी देखी थी - हाँ मगर कल रात को "युज़वल सस्पेक्ट" देखी थी - यह जरूर याद है! हिन्दी अखबार नज़र किए हुए अरसा हो चुका है - हाँ टाइम्स ऑफ़ इंडिया रोज पढ़ते हैं। स्कूल में सी. बी. एस. ई. माध्यम से पढ़ाई की तो स्पीड का पता है मगर गति का नही। अभियांत्रिकी महाविद्यालय में भी सिर्फ़ "इंजीनियरिंग" पढी। अब दफ्तर में तो अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है। "आल दी इश्युस शुड बी सोल्व्ड ऑन अ प्रायोरिटी बेसिस" - बॉस ने बोला येस् तो मतलब येस् !
चहुँ ओर अंग्रेजी की मार सहकर हम लुटे पिटे चले आते हैं एक हिन्दी के चिठ्ठे पे लिखने के लिए। उसमें भी पहले तो हिन्दी में कुछ सोच नही पैदा होते, और जो पैदा होते हैं उनकी अभिव्यक्ति के लिए वाक्यांश नहीं मिलते !
वैसे हालात हमेशा इतने बुरे नहीं थे। मैंने हिन्दी में चिठ्ठाकारी शुरू की थी १६ नवंबर २००७ को। फिर १९ नवंबर २००७ तक ८ चिठ्ठे जोड़ चुका था। मगर बीच में कुछ अपरिहार्य कारणों की वजह से चिठ्ठाकारी की दुकान बंद करनी पड़ी। अब इस साल फिर से शुरुआत कर रहा हूँ। मगर हिन्दी 'मोड" से बाहर आने और अभ्यास छुटने के कारण अब लिखना मुश्किल है। फिर से एक -एक करके पाठक जुटाने पड़ेंगे, फिर से धाक जमानी पड़ेगी, साथी चिठ्ठाकारों से फिर से मेलजोल बढ़ाना पढेगा (शायद भूल ही चुके हों) - फिर से सब कुछ ! उफ़...
मगर मन में आशा है - कि आप सब सुधिजनो के सहयोग से मैं दोबारा अपने पैरों पर खड़ा हो पाउँगा। क्यों नहीं आख़िर उम्मीद पर दुनिया टिकी है!